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आनन्द-प्रवचन भाग-४
- वास्तव, में इस मन की बड़ी अद्भुत लीला है। यह कभी आकाश में उड़ता है, कभी पाताल में जाता है और कभी विभिन्न दिशाओं में भटकता फिरता है किन्तु भूलकर भी वहाँ नहीं जाता, जहाँ इसे सच्चे सुख की उपलब्धि हो सकती है। वह सच्चे सुख का स्थान आत्मा है । आत्मा में आनन्द का असीम सागर लहरा रहा है, आपके नजदीक भी यह नहीं भटकता। अगर यह आत्म-स्वरूप को समझने का प्रयत्न करे तथा उसमें स्थित परमात्मा का चिंतन करे तो सहज ही समस्त पापों से मुक्त हो सकता है और सदा के लिए संसार में आवागमन से बच सकता है, किन्तु उसकी अस्थिरता उसे टिकने नहीं देती।
पर जो महा-मानव इसे वश में करने का दृढ़ संकल्प कर लेते हैं वे कुछ उपायों के द्वारा इसे वश में करते हैं। वे उपाय हैं-मन को स्वाध्याय में लगाना तथा अनित्यता, अशरणता आदि बारह भावनाओं के तथा शुभ और अशुभ कर्मों के फलों के चिन्तन में लगाना । मन का स्वभाव हर समय कुछ न कुछ विचार करने का होता है। वह पलभर के लिए भी खाली नहीं रह सकता। अतः इसे इन क्रियाओं में उलझाए रहने से यह प्रशस्त क्रियाओं में लगा रहेगा तो विषय-वासनाओं की ओर जाने का अवकाश नहीं पाएगा। और धीरे-धीरे जब इसकी आदत शुभ परिणति में रहने की हो जाएगी तब वह स्वयं ही विषय-विकारों से विरक्त होता हुआ आत्मा में स्थिर हो जाएगा। मुनिजन इसे स्थिर करने के लिए ही शान्त और एकान्त स्थान में रहकर चिंतन, मनन, स्वाध्याय एवं साधना करते हैं। .. कहने का अभिप्राय यही है कि यद्यपि मन अत्यन्त चंचल, दुष्ट और उद्दण्ड होता है। किन्तु फिर भी वह आत्मा का स्वामी नहीं है अपितु आत्मा ही उसका स्वामी है, अतः प्रयत्न करने पर आत्मा निश्चय ही उसे नियंत्रण में ला सकता है । जब वह आत्मा द्वारा प्राप्त की हुई शक्ति से इतना बलवान बनता है तो आत्मा निश्चय ही उसे अपने अधीन कर सकती है
और करती भी है। (४) छाया
छाया की गणना भी चंचल वस्तुओं में आती है। यह भी एक जगह कभी स्थिर नहीं रह सकती। घड़ी में यहाँ और घड़ी में वहाँ चली जाती है। प्रातःकाल जब सूर्य अपनी किरणों को पृथ्वी पर फेंकता है तो यह बड़ी लम्बी रहती है पर धीरे-धीरे मध्यान्ह का सूर्य मस्तक पर आता है त्यों-त्यों यह छोटी होती जाती है । छाया को पकड़ सकना सरल नहीं है। अगर व्यक्ति इसे छूने दौड़े तो यह भी उतनी ही तेजी से आगे दौड़ती चली जाती है। पर इसे पकड़ने का उपाय भी हमारे शास्त्र बताते हैं
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