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आनन्द-प्रवचन भाग-४
अपने मन पर कम संयम रख पाते हैं, त्याग, तपस्या अथवा व्रतादि का पालन कम कर पाते हैं, उनकी आत्मा पर से कर्म-भार थोड़ा हटता है । और जो भव्य जीव अपनी आत्मा पर पूर्ण नियन्त्रण रखते हैं और अहिंसा, सत्य, आदि महाव्रतों का पूरी तरह पालन करते हुए घोर तपाचरण करते हैं वे शीघ्र ही कृत - कर्मों की निर्जरा कर लेते हैं । तथा नवीन कर्मों को बँधने से रोक देते हैं ।
आध्यात्मिक विकास के सर्वोच्च शिखर पर
जैन-धर्म में आध्यात्मिक विकास के सर्वोच्च शिखर पर पहुँच जाने वाले महा-मानवों को तीर्थंकर कहा जाता है । उनमें अनेक विशेषताएँ होती हैं । वे राग-द्व ेषादि समस्त विकारों तथा कषायों से रहित होते हैं । तथा सम्पूर्ण जगत को समान स्नेहमयी दृष्टि से देखते हैं । मनुष्य तो मनुष्य, तुच्छ वनस्पति आदि स्थावर जीवों पर भी उनका वही समत्व भाव रहता है । इसीलिये उनकी धर्म सभा में सिंह के समान क्रूर और हरिण के समान भोले जीव भी समान भाव से उपस्थित रहते हैं । न सिंह के हृदय न हरिण के हृदय में भय की भावना ।
में
हिंसक भावना होती है और
यह बात सुनकर श्रोताओं के हृदय में कुछ अविश्वास पैदा हो सकता है । क्योंकि उन्हें मृगराज और मृग का एक साथ रहना असंभव प्रतीत होता होगा किन्तु इसमें तनिक भी आश्चर्य की बात नहीं है । आज हम देखते हैं कि भौतिकविद्या के चमत्कार भी मानव को चकित कर देते हैं और साधारण से साधारण व्यक्ति भी जो अपने आपको योगी कहते हैं वे मनुष्य की बुद्धि को कुशलता से हतप्रभ करने में समर्थ बन जाते हैं ।
तो फिर तीर्थंकरों की आध्यात्म शक्ति क्या नहीं कर सकती ? सम्पूर्ण दोषों एवं विकारों से युक्त हो जाने के कारण उनकी आत्मा पूर्णतया विशुद्ध हो जाती है और इसके परिणामस्वरूप उनमें असंख्य आध्यात्मिक शक्तियाँ प्रगट हो उठती हैं । उनकी ज्ञान शक्ति ही केवल दर्शन के द्वारा वे तीन लोक और देख लेते हैं | स्वर्ग के सर्वोच्च देव इन्द्र भी अपार श्रद्धा और भक्ति के साथ उन्हें वंदन करते हैं ।
अनन्त होती हैं, तीन काल की उनके समक्ष
केवल ज्ञान और बातें जान लेते हैं, नत होते हैं तथा
समवशरण में क्या यह तो एक साधा
ऐसे पूर्ण एवं उत्कृष्ट आध्यात्म योगी तीर्थंकर के सिंह और मृग का एक साथ बैठना असंभव बात है ? नहीं, रण सी बात है । जो अपनी शक्ति से इन्द्रासन को भी हिला सकते हैं उनके लिये क्या आश्चर्यजनक हो सकता है ? कुछ भी नहीं ।
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