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कहां निकल जाऊँ या इलाही !
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अर्थात् - चार युग निकल जाने पर ब्रह्मा जी का चार प्रहर का एक दिन होता है ।
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चार युगों में सबसे छोटा कलियुग है । पंचांग में बताया गया है कि कलियुग चार लाख बत्तीस हजार वर्षों का है समय का, यानी आठ लाख चौसठ हजार वर्षों का
। द्वापर युग इससे दुगने
।
द्वापर से
दुगने युग का
त्र ेता युग
था और त्रेता युग से दुगने का सतयुग । इस प्रकार चार युगों के बीत जाने पर चार पहर ब्रह्माजी की रात्रि होती है। ऐसे तीन दिनों का महीना, बारह महिनों का वर्ष और सौ वर्ष की ब्रह्माजी की आयु बतायी गई है ।
तो ब्रह्माजी की आयु की भांति अकर्मभूमि के मनुष्यों की आयु इसीप्रकार अधिक से अधिक तीन पल्योपम की हमारे शास्त्र बताते हैं । किन्तु इस कलियुग के अथवा आज के मनुष्यों की आयु देखते ही हैं कि अधिक से अधिक सौ वर्ष कुछ ही ऊपर, सौ या इससे भी बहुत कम होती है । सौ वर्ष भी मनुष्य जीवित नहीं रह पाते, उससे बहुत पहले ही उनकी आयु समाप्त हो जाती है ।
इसलिये प्रारम्भ में बोले गए श्लोक में भगवान् महावीर का उपदेश बताया गया है कि - " हे पुरुष ! मनुष्य जीवन बहुत थोड़ा है और इतने अल्प समय में ही तुम्हें आत्म-कल्याण का प्रयत्न करना है अतः पापों से विरक्त हो जाओ ।"
क्रोध, मान, माया, मत्सर, मोह तथा ईर्ष्या-द्वेष आदि पापों के जनक हैं । इनके कारण ही जीव कर्म-बंधनों में जकड़ता जाता है और जन्म-जन्मान्तर तक भी उनसे छुटकारा नहीं पाता । अतः इनसे विरक्त होना मानव के लिये आवश्यक है और वही धर्म है । संस्कृत का एक श्लोक देखिये
यस्य न राग द्वेषौ नापि स्वार्थी तेनोक्तो यो धर्मः, सत्यं पथ्यं
ममत्वलेशो वा । हितम् मन्ये ॥
जिनके न राग है, न द्वेष है, न स्वार्थ है और न ही लेश मात्र भी ममत्व है । ऐसे वीतराग के बताये हुए धर्म को मैं सत्य, उपयुक्त और हितकर माता हूँ ।
वीतराग का अगर कोई आदर सम्मान करे और उनकी पूजा उपासना करे तो वे प्रसन्न नहीं होते और कोई उनका अपमान करे या डंडों से पीटे तब भी वे नाराज नहीं होते । भगवान् महावीर के एक पैर का अंगूठा चंडकोशिक सर्प के मुँह में था और दूसरे पैर पर इन्द्र का मस्तक । फिर भी दोनों के लिये भगवान् के नेत्रों से समान स्नेह-सुधा प्रवाहित होती रही थी ।
गौतम स्वामी भगवान् महावीर के सबसे बड़े शिष्य थे लेकिन उनके लिए भी भगवान् के हृदय में कहीं पक्षपात नहीं था ।
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