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आनन्द-प्रवचन भाग-४
का मोह रहता है तब तक वह अंधे के समान करणीय-अकरणीय का विचार किये बिना वचन तथा शरीर को साथ लेकर पापों का बीज बोता रहता है। इसीलिये भक्त तुलसीदास जी ने परेशान होकर भगवान से कहा है
माधव, मोह पाश किम छूटे ? बाहर कोटि उपाय करिये, अभ्यंतर ग्रन्थि न छूटे ।
माधव ॥ अपने अन्तर्द्वन्द्व से घबराकर कवि कह रह रहे हैं-हे कृष्ण ! इस मोह रूपी जबर्दस्त पाश से मैं किस प्रकार छूट सकूगा ? बाहर से करोड़ों उपाय करता हूं । पूजा, भक्ति जप-तप आदि में मन को लगाए रखने का तथा कर्मों से मुक्त होने का नाना विध प्रयत्न करता हूँ किन्तु यह मोह रूपी आंतरिक ग्रंथि तो खुल ही नहीं पा रही है । और ऐसी अवस्था में मेरा किस प्रकार कल्याण हो सकेगा ?
वास्तव में ही मोह के द्वारा मनुष्य बिना बाँधे हए भी बड़ी कडाई से बंधा रहता है । पशुओं को खूटे से बाँधा जाता है पर कभी वह जोर लगाकर रस्सी तोड़ देता है और कभी खूटा ही उखाड़ डालता है किन्तु मोह के इस आभ्यंतर और जबर्दस्त पाश को तोड़ना बड़ा ही कठिन होता है।
मोह में बंधे रहने के कारण मनुष्य को कहीं भी चैन नहीं पड़ती। दो दिन संतों के यहाँ ठहर गए तो तीसरे दिन ही भागने के लिये उतावले हो उठते हैं कि घर पर बाल-बच्चे परेशान हो रहे होंगे या कि दुकान और फैक्टरी का नुकसान होगा। मोह के विषय में कहाँ तक कहा जाय ? व्यक्ति घरबार छोड़ देता है, राज्य-पाट त्याग देता है, क्रोध, मान और माया को भी घटा कर ग्यारहवें गुण स्थान तक पहुँच जाता है, किंतु मोह का एक झोंका आते ही वह पुनः फिसलकर नीचे आ गिरता है। बड़े-बड़े साधक, महात्मा और संयमी पुरुष भी, मोह के वशीभूत होकर अपनी साधना को मिट्टी में मिला लेते हैं । मोह के नष्ट हुए बिना अन्य समस्त बाह्यक्रियाएँ किस प्रकार व्यर्थ चली जाती हैं, इस बात को कवि ने उदाहरण देते हुए इस प्रकार समझाया है
घृत पूरण कड़ाह अन्तर्गत, शशि प्रतिबिंब दिखावे । ईंधन अग्नि लागत कल्पशत, औटत नाशन पावे ॥
माधव ..."
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