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________________ मन के मते ना चालिये.... १५७ मन महाराज अब हमें यह देखना है कि पाप का बीज किसकी सहायता से बोया जाता है ? यद्यपि मैंने अभी आपको बताया था कि कषाय जब मन, वचन और काय इन तीनों योगों से मिलते हैं तब पापों का जन्म होता है। पर मुझे अपनी इस बात में थोड़ा सा संशोधन करना है। वह यही कि कषाय के साथ तीनों योगों के मिलने से पाप का बीज बोया अवश्य जाता है किन्तु इन तीनों योगों का मुखिया मन है और इसीलिये वचन और काया की अपेक्षा कषायों के साथ मन का सहयोग अधिक होता है पापों के जन्म लेने में । इस बात से स्पष्ट हो जाता है कि पापों का मुख्य कारण मन है। वचन और शरीर तो केवल इसके आदेशानुसार चलते हैं । जब तक मन नहीं जीता जाता, कषाय शांत नहीं होते और मनुष्य इन्द्रियों का गुलाम बना रहता है । लोकभाषा में कहा जाता है - "जिसने मन पर ताबा मिलाया, उसने सब मिला लिया। जिसने मन पर काबू नहीं पाया उसने सब गमा दिया । पुंडरीक राजा ने अपनी हजारों वर्षों की तपस्या को मन पर अंकुश न रख पाने के कारण तीन दिन में ही खो दिया । तात्पर्य यही है कि मन की शक्ति बड़ी जबर्दस्त है। अगर यह संसार की तरफ आकृष्ट हो जाता है तो आत्मा को अधोगति दिलाता है और अगर संसार से विमुख हो जाता है तो इससे मुक्ति दिलाकर छोड़ता है। एक संस्कृत श्लोक में भी यही बात बताई गई है: मन एव मनुष्याणां, कारण बन्धमोक्षयोः । बन्धाय विषयासक्त मुक्तं निविषयं स्मृतम् ।। मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का कारण हैं। विषयासक्त मन बन्धन के लिये है और निविकार यानी विषय रहित मन मुक्त माना जाता है। . इस प्रकार हमने यह जान लिया कि पापों का असली जनक मन है, पर अब यह ही जानना चाहिये कि मन किस मुख्य भावना के वशीभूत होकर पापों का उपार्जन करता है ? इस विषय में महापुरुष कहते हैं कि मन जितने भी पापों में हाथ बटाता है उसका मुख्य कारण मोह है। सांसारिक ऐश्वर्य एवं सुख सुविधा के पदार्थों के प्रति आसक्ति या मोह ही मन को कुकर्मों के लिये प्रेरित करता है । धन-दौलत या स्वजन-परिजनों के प्रति जब तक मनुष्य Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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