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आनन्द-प्रवचन भाग-४
श्राविका ये चारों अर्थात् यह चतुर्विध संघ धर्म को धारण करता है तथा धर्म का आचरण करता है । अतः इसे भी तीर्थ कहा जाता है तथा इस चतुर्विध धर्म संघ की स्थापना करनेवाले महामानवों को तीर्थकर पद से सुशोभित किया जाता है।
श्री मद्भागवत में एक स्थान पर कहा गया है
'धर्म को धारण करने वाले संत-महापुरुष ही वास्तविक तीर्थ और देवता हैं क्योंकि इन संत महापुरुषों के दर्शन-मात्र से ही कल्याण हो जाता है।"
कहने का अभिप्राय यही है कि जिनके मानस में धर्म का स्थान बन जाता है उन महामानवों को तीर्थ कहा जाता है और जिन स्थानों पर जाने से धार्मिक भावनाएँ जागृत होती हैं उन्हें भी तीर्थ-स्थान कहते हैं । इसीलिये गंगा नदी को भी वैष्णव धर्म में तीर्थ माना गया है
नास्ति गंगासमं तीर्थं । तो मैं यह बता रहा था कि धर्म को धारण करने वाले साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविका तीर्थ कहलाते हैं और इनके चतुर्विध संघ का निर्माण करने वाले तीर्थंकर ।
तीर्थंकर की विशेषताएँ प्रश्न उठ सकता है कि धर्म का स्थान तो उपरोक्त चतुर्विध संघ में होता है फिर तीर्थंकर में क्या विशेषताएँ हैं जो उन्हें अधिक महत्त्वपूर्ण साबित करती हैं।
उत्तर यही है कि यों तो प्रत्येक आत्मा अपने शुद्ध रूप में परमात्मा ही होती है। किन्तु कर्मों के आवरणों की तरतमता उनमें अन्तर उत्पन्न कर देती है। प्रत्येक आत्मा चाहे वह गरीब की हो या अमीर की, कसाई की हो या योगी की, समान होती है, पर कर्मों का लेप उन्हें निकृष्ट और उत्कृट बनाता है । जिस आत्मा पर यह लेप प्रगाढ़ होगा वह हीन साबित होगी तथा इस संसार में जन्म-मरण करती रहेगी। किन्तु जो आत्मा तप एवं संयम के द्वारा अपने कर्मों के लेप को जितनी मात्रा में हटाती हुई हल्की और शुद्ध होती जायेगी वह उतनी ही उत्कृष्ट होती हुई अपनी स्वाभाविक अवस्था में अर्थात् परमात्म-दशा के निकट पहुँचती जाएगी।
___आत्मा पर कर्मों का लेप क्यों होता है ? हमारे जैन धर्म में आत्मा को दुर्बल बनाने वाले अठारह दोष बताए गये हैं । वे हैं-मिथ्यात्व, अज्ञान, क्रोध, मान, माया, लोभ, रति, अरति, निद्रा, शोक, अलीक, चौर्य, मत्सर, भय, हिंसा, राग, क्रीड़ा और हास्य । संक्षेप में
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