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________________ तीर्थंकर महावीर धर्मप्रेमी बन्धुओ, माताओ एवं बहनो ! 'तीर्थंकर' शब्द से प्रत्येक जैनधर्मावलम्बी परिचित होता है । आपने भी अनेकों बार तीर्थंकर शब्द पढ़ा होगा, सुना होगा तथा बोला होगा । बाल्यावस्था में ही अधिकांश जैन बालक नमोकार मंत्र तथा चौबीस तीर्थंकरों के नाम आदि थोड़ी बहत चीजें याद कर लेते हैं। किन्तु तीर्थकर शब्द का अर्थ क्या है, अथवा किन कारणों से तीर्थंकर शब्द का निर्माण किया गया है इस पर सभी लोग विशेष ध्यान नहीं देते । अतः सर्व प्रथम हमें इस शब्द का अर्थ समझने का प्रयत्न करना है। तीर्थकर किसे कहा जाता है ? तीर्थंकर का शाब्दिक अर्थ जो सहज ही समझ में आता है । उसके अनुसार तीर्थ को करनेवाला यानी तीर्थ को बनाने वाला तीर्थंकर कहलाता है। पर इस अर्थ के सामने आते ही पुनः प्रश्न खड़ा होता है कि तीर्थ किसे कहते हैं ? ____तीर्थ को हम तैराने वाला या तैरा कर पार उतारने वाला कह सकते हैं। और इस संसार-सागर से आत्मा को तिरानेवाला एक मात्र धर्म ही होता है अतः जैन-परिभाषा के अनुसार तीर्थ का अर्थ है 'धर्म' । अहिंसा, सत्य एवं संयम-रूप धर्म जीवात्मा को संसार-समुद्र से पार उतारता रहता है। अतः धर्म को तीर्थ की संज्ञा देना पूर्णतः उपयुक्त है। तीर्थंकर अपने काल में संसार-सागर से पार उतारने वाले इसी धर्म-तीर्थ की स्थापना करते हैं । अतः उन्हें तीर्थंकर कहा जाता है। आप कहेंगे कि साधु-साध्वी, श्रावक तथा श्राविका का इन चारों को ही हमारे यहां तीर्थ कहते हैं, वह क्यों ? इसलिये कि, साधु, साध्वी, श्रावक एवं Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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