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आनन्द-प्रवचन भाग-४
यह संभव है ? नहीं, सुनार पीतल लेकर आपको सोने के जेबर नहीं देगा । इसी प्रकार परमात्मा भी आपकी कपट क्रियाओं के बदले में आपको सच्चा सुख अथवा मुक्तावस्था कभी भी प्रदान नहीं करेगा ।
..नेकनीयती का परिणाम
बम्बई की एक घटना सुनने में आई थी कि एकबार किसी श्रीमंत की जेब से एक पुड़का, जिसमें सत्रह हजार रुपयों के नोट थे, कहीं गिर गया । बम्बई जैसे शहर में जहाँ पॉकेटमार और गुड़े कदम-कदम पर मिलते हैं जो कि क्षण भर में व्यक्ति को छुरा मारकर पैसा छीन लेते हैं या फिर ऐसी सफाई से जेब काटकर चंपत हो जाते है, वहाँ सत्रह हजार रुपयों का पुड़ा पुनः मिल जाना कहाँ संभव है । किन्तु संयोग वश वह पुड़ा एक निर्धन किन्तु सत्यवादी और ईमानदार व्यक्ति को मिल गया ।
सत्रह हजार रुपये लेकर वह व्यक्ति अपने घर आया और अपनी पत्नी से उसने यह बात बताई। हालांकि अगर वे दरिद्र दंपति चाहते तो सत्रह हजार रुपया सहज ही अपने पास रखकर जीवन भर के लिये अपनी दरिद्रता दूर कर सकते थे । किन्तु जैसा धर्मपरायण वह व्यक्ति था वैसी ही उसकी पत्नी थी, धर्मपत्नी कहना चाहिये उसे । पति की बात सुनकर वह बोली
"यह रुपया हमें जिसका है उसे ही लौटा देने का प्रयत्न करना चाहिये । अगर और किसी को यह मिल गया होता तो वह कदापि लौटाने की बात नहीं सोचता, किन्तु अच्छा ही हुआ जो आपको मिलः । हमें तो दूसरे का धन रखना ही नहीं है | करना भी क्या है ? इन नोटों के बिना भी हम भूखे तो रहते नहीं, ईश्वर पेट भरता ही है । उसको सृष्टि में चींटी को कन भर और हाथी को मन भर भी अवश्य मिलता है ।"
कवि सुन्दरदास जी ने भी यही कहा है
काहे को फिरत नर दीन भयो घर-घर,
देखियत तेरो तो आहार इक सेर है । जाको देह सागर में सुन्यो शत योजन को,
ताहू कुँ तो देत प्रभु या में नहीं फेर है । भूख कोऊ रहत न, जानिये जगत मांहि,
कोरी अरु कुंजर सबन ही को देत है । सुन्दर कहत विश्वास क्यों न राखे शठ, बेर-बेर समझाय को केती बेर है ।।
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