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________________ मन के मते न चालिये.... १५३ किसान अगर पाप के बीज बोते हैं तो उनसे पाप कर्मों का बंधन होता है और पूण्य के बीज बोते हैं तो पुण्य कर्मों का । पाप कर्मो का बंध होना आत्मा के लिये अशुभ है और पुण्य कर्मों का बंधन होना शुभ । पद्य में आगे कहा है- बवे सो लवे सुजान ।' जैसा बोयेंगे वैसा ही फल प्राप्त होगा । बाजरा बोने पर गेहूं नहीं मिलेगा और चने बो देने से चावल पैदा नहीं होंगे । गेहूँ पैदा करने के लिये गेहँ ही बोने पड़ेंगे और चावल प्राप्त करने के लिये चावलों को बोना पड़ेगा । बाजरा बोकर गेहूँ पाने की इच्छा रखना और चने बोकर चावल प्राप्त करने की अभिलाषा करना मूर्खता है। बंधुओ ! आप सोचेंगे कि हम ऐसे मूर्ख कदापि नहीं है जो बाजरा बोकर गेहूँ और चने बोकर चावल पाने की आशा रखें। आपका यह विचार गेहूँ और चने की दृष्टि से तो बिलकुल ठीक है और आप बहुत समझदार हैं यह मैं मानता हूँ। किन्तु मैं यह जरूर कह सकता हूँ कि आप पापों के बीज बोकर पुण्य की फसल प्राप्त करना चाहते हैं और इसमें जरा भी सन्देह नहीं है। ___ जरा दृष्टि फैलाकर देखिये कि इस संसार में मनुष्य करता क्या है और उसका फल क्या चाहता है ? आज का मनुष्य बीड़ी, तम्बाकू, सिगरेट यहां तक कि शराब पी-पीकर भी स्वस्थ रहना चाहता है, बेइमानी, धोखेबाजी और अनीति से अतुल धन कमाकर उसका एक अंश-मात्र दान के नाम से निकाल कर महादानी कहलाना चाहता है, अपने हृदय में क्रोध, मान, माया तथा लोभादि कषायों को ज्यों का त्यों रहने देकर स्वर्ग प्राप्त करने की इच्छा रखता है, ईर्ष्या, द्वेष, मोहादि दुर्गुणों को मन से न निकालकर भी सद्गुणी और सदाचारी कहलाना चाहता है, किताबी शिक्षा हासिल करके अपने कुतर्कों से लोगों को निरुत्तर करके अपने आपको ज्ञानी सिद्ध करना चाहता है। इतना ही नहीं वह अन्तरंग को न छूनेवाली केवल जबान व शरीर से की जाने वाली थोथी भक्ति, पूजा और उपासना से भगवान को भी भुलावा देकर उसे खुश करना चाहता है। सारांश यही है कि वह अपनी सम्पूर्ण क्रियाएँ तो कर्म बंधनों को उत्पन्न करने वाली करता है, किन्तु उनके द्वारा आत्मा के कर्ममुक्त हो जाने की आकांक्षा रखता है। तो बताइये भला, यह सब पापों के बीज बोकर पुण्य-रूपी फसल को काटने की इच्छा रखना नहीं तो और क्या है ? आप सुनार को देंगे तो पीतल और उससे अपेक्षा रखेंगे कि वह सोने के आभूषण आपको बना दे। तो क्या Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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