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________________ आनन्द-प्रवचन भाग-४ पाय के मनुष्य देह, प्रभु से न कियो नेह, पुण्य पाप जाने नहीं धिक अवतारी है। राच्यो राग रंग संग, माचो खाय खाय अंग, कुल मरजादा भंग, नर्क अधिकारी है । कहत त्रिलोक रिख, मान ले तू गुरु सीख, भव-भव जै-जैकार लहे सुख भारी है। कविकुल शिरोमणि महाराज श्री का कथन है कि भर्तृहरि के श्लोक के आधार पर मनुष्य को जिनकी सात उपमाएं दी गई हैं, उन सभी से वह नेष्ट यानी न-इष्ट है दूसरे शब्दों में हीन और निकृष्ट है। अपनी माता के गर्भ में नौ मास रहकर प्रथम तो उसने माता की कोख को लज्जित किया है, दूसरे स्वयं भी मनुष्य शरीर पाकर उससे कोई लाभ नहीं उठाया । न तो उसने प्रभु की भक्ति ही की, और न ही पूण्य और पाप का अन्तर समझ कर पाप से बचा तथा पुण्य का उपार्जन ही किया। पाप की प्रवृत्ति के विषय में कहा गया है - "सज्जनो दुर्जनः स्यात् पापाद्विपरीतं फलं त्विह।" पाप का फल सदा ही उलटा होता है। पाप करने से सज्जन पुरुष भी दुर्जन बन जाया करता है। ___ वस्तुतः पाप-प्रवृत्ति मानव जीवन के लिये कलंक है और इसमें लिप्त हुए जीव का इस पंक से उबरना कठिन हो जाता है । किन्तु जो व्यक्ति पापों से बचते हुए शुभ कर्म करता है वह सदा सुखी रहता है । 'स्थानांग सूत्र' में कहा गया है: इह लोगे सुचिन्नाकम्मा, इह लोगे सुहफलविवाग संजुत्ता भवन्ति । इह लोगेसुचिन्नाकम्मा, पर लोगे सुहफलविवाग संजुत्ता भवन्ति ॥ इस जीवन में किये हुए सत्कर्म इस जीवन में भी सुखदायी होते हैं । इस जीवन में किये हुए सत्कर्म अगले जीवन में भी सुखदायी होते हैं। तो महाराज श्री फरमाते हैं कि जिस जीव ने मनुष्य शरीर पाकर भी पापों से किनारा नहीं किया और पुण्यों का उपार्जन नहीं किया तो उसका मनुष्य के रूप में अवतार लेना व्यर्थ है और उसे बार-बार धिक्कार है । मानव-जन्म पाकर भी जो सदा राग-रंग में डूबा रहता है अर्थात् विषय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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