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________________ १२२ आनन्द-प्रवचन भाग-४ को हो जाता है, इसीप्रकार मेरे जीवन के दिन भी एक-एक करके खिसक गए हैं और यह शरीर रूपी वृक्ष अब गिर पड़ने को ही है। किन्तु फिर भी मेरा यह मूढ़ मन मोह का त्याग नहीं करता और अभी तक भी सांसारिक पदार्थों में उमंग पूर्वक उलझा रहना चाहता है । ऐसे मूर्ख के साथ से ही मेरी आत्मा को संसार में भटकना पड़ रहा है और पुनः पुनः जन्म-मरण के कष्टों को सहना पड़ रहा है। तो बंधूओ, यह शरीर तो एक दिन अवश्य जाएगा, चाहे हम इसे फूलों से तोलते हुए यानी रात दिन इसकी सेवासुश्रुषा करते हुए सुकुमार बनाए रखें अथवा व्रत, उपवास और कठिन संयम-साधना करके इसे कृश बना डालें । फर्क यही है कि इसके आराम का जितना ख्याल रखा जाएगा तथा इसकी सुख-सुविधाएँ जुटाने के लिये जितना पाप कमाया जाएगा वह परलोक में हमें नाना कष्ट सहन करने का कारण बनेगा । और यदि व्रत, प्रत्याख्यान तप तथा साधना आदि में इसे सहायक बनाकर इससे काम लिया जाएगा तो पूर्व कर्मों की निर्जरा होगी और नवीन कर्मों का बंध नहीं होगा। तपश्चर्या करने से आत्मशुद्धि होती है और आत्मशुद्धि होने पर कर्मों का क्षय हो जाता है । जब कर्म पूरी तरह नष्ट हो जाते हैं तो आत्मा संसार मुक्त हो जाती है। किसी कवि ने कहा भी है : तप करना ही मुक्ति का जाना है। या तो आम खुद पके दूजे जरिये पाल, या तो कर्म रस दे झड़े या तप से देवै गाल । जिसके बारे प्रकार बयाना है । तप करना ही मुक्ति का जाना है। पद्य की भाषा अत्यन्त सरल और सीधी है किन्तु इसमें बताई हई बातें बड़ी गंभीर और सार-गर्भित हैं । कवि का कथन है—तप करना ही मुक्ति का जाना है । वह किस प्रकार ? मुक्ति के चार सोपान माने गए हैं—सम्यक् ज्ञान, सम्यक् दर्शन, सम्यक् चारित्र एवं सम्यक तप । ज्ञान से वस्तुस्थिति समझ में आती है तथा दर्शन से उसे गहराई तक जान लिया जाता है । और चारित्र के द्वारा ज्ञान को जीवन में उतारा जाता है अर्थात् क्रियान्वित किया जाता है। ___ अब ध्यान से समझने की आवश्यकता है। वह यह कि चारित्र नये पाप कर्मों का बंधन नहीं होने देता क्योंकि व्रत ग्रहण करने और संयम लेने के पश्चात् कर्मों का आगमन रुक जाता है । तो चारित्र ने नए कर्मों को आने से Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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