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आनन्द-प्रवचन भाग-४
सुन्दर कहत मेरी-मेरी करि भूले सठ,
चंचल चपल माया भई किन-किन की ॥ पद्य में कवि ने जीवन और धन, दोनों की अस्थिरता के विषय में बताया है और मनुष्य को चेतावनी दी है-अरे अज्ञानी मनुष्य ! तेरा यह शरीर तो बालू के बने हुए मकान के सदृश है, जो कि हर क्षण छीजता और हर मिनट घटता जाता है । जब से तू इसमें आया है तभी से इसकी नींव तो हिलने लग गई है एक पल या मिनट का भी भरोसा नहीं है कि यह कब गिरकर नष्ट हो जाएगा।' ___'किन्तु मुझे तो तेरी बुद्धि पर तरस आता है कि ऐसे अस्थायी मकान में भी तू निःशंक और मस्त होकर बैठा है। इतना ही नहीं, तेरी करतूतों को देखकर भी मुझे तो बड़ा आश्चर्य होता है कि तू यहां भविष्य की तनिक भी फिक्र न करके तरह-तरह के झूठे-सच्चे लेन-देन और खान-पान करता है । क्या तुझे यह पता नहीं है कि यह सब कुकर्म तेरे क्या काम आएँगे ? क्योंकि भले ही तू चूहे के समान लाख इधर-उधर दुबकता फिर किन्तु मौत तो बिल्ली के समान तेरे जन्म लेने के पश्चात् से ही तेरी ताक में बैठी है और मौका देखते ही झपट्टा मारकर दबोच भी लेगी।' _ 'वह क्षण आते ही तुझे इस घर को, इन बनाए हुए सम्बन्धियों के मोह तथा मेरी-मेरी करके यह जो लक्ष्मी तूने जोड़ी है इसको भी छोड़ने में भी तुझे अपार दुःख होगा। हजार रोने-कलपने पर भी न यह चंचल लक्ष्मी तेरी बनी रह सकेगी और न इस बालू के घर में भी क्षण भर के लिये भी तू रह सकेगा।'
इसलिए भोले प्राणी ! तू इस चंचल लक्ष्मी से मोह छोड़ तथा विषयभोगों का त्याग कर । ये विषय-भोग तेरे लिये विष के समान हैं । इन्हें भोगते हुए भी तू तृष्णा के कारण दुःखी रहेगा और इनसे वियोग हो जाने पर इनके कारण बंधे हुए कर्मों से दुःखी होगा । तेरे लिए तो यही हितकर है कि इस नश्वर घर में जितने समय भी तू टिक पाए, इसका अधिक से अधिक लाभ उठाले । अर्थात् जितने दिन का जीवन है इसमें धर्माचरण करके अपने कर्मबंधन काट ले तथा जन्म-मरण के दुःखों से मुक्त होने का प्रयत्न करले ताकि बालू के घर रूपी इस शरीर को छोड़ने का तुछे पश्चात्ताप न हो।
यही बात गुजराती कविता में आगे कही गई है-~-यानी आने से पहले ही पाल बांधो।'
बात कह छ हजी व्हेलो, बांध जो पालनै पैली । का हूं संत ना शिष्ये- भला थइने भलू करजो॥
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