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आनन्द-प्रवचन भाग- --४
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भव में मेघरथ राजा ने तथा राजा शिबि ने एक कबूतर के लिए अपने शरीर का मांस काट-काट कर तराजू पर रख दिया । हमारा धर्म तो कहता है अपने दुश्मन का भी तुम उपकार करो, कभी उसका बुरा मत सोचो | अल्प वयस के मुनिगजसुकुमाल के मस्तक पर उनके ससुर सोमिल ब्राह्मण ने धधकते हुए अंगारे रख दिए थे । किन्तु उनके मन में समय मात्र के लिए भी उसके इस कुकृत्य के प्रति दुर्भावना नहीं आई । इसी का परिणाम था कि अल्पक्षणों में ही वे भावों की उत्कृष्टता के कारण सम्पूर्ण कर्मों का नाश करके संसार से मुक्त हो गए ।
तात्पर्य यही है कि वही महापुरुष अपना कल्याण कर सकता है, जिसके हृदय में प्राणीमात्र के प्रति प्रेम की भावना हो और जो अपनी शक्ति के अनुसार प्रतिपल औरों का भला करने का प्रयत्न करे । जो भव्य प्राणी परोपकार की भावना रखते थे, उनका ही इस संसार से उद्धार हुआ है और जो इस भावना को नहीं रख सके वे अब तक यहां भटकते रहते हैं । परोपकार करने की वृत्ति न रहे तो पुण्योपार्जन का कोई साधन मनुष्य के पास नहीं
रह जाता ।
संस्कृत में कहा गया है—
परोपकारशून्यस्य, धिक् मनुष्यस्य जीवितम् । धन्यामास्ते पशवो येषाम्, चर्माप्प करोति हि । आत्मार्थं जीवकेऽस्मिन् को न जीवति मानवः ? वरं परोपकारार्थं यो जीवति स संस्कृत साहित्य में बताया है कि - जो व्यक्ति परोपकार - शून्य हैं, उनके जीवन के धिक्कार है । उनसे पशु ही अच्छे जिनकी चमड़ी भी पराये काम आती है ।
जीवति ॥
अपने लिए इस जीव लोक में कौन मनुष्य नहीं जीता ? किन्तु सच्चे मायने में वही जीता है, जो परोपकार के लिए जीता है । अन्यथा तो व्यक्ति जीवित भी मरे के समान ही है ।
ही हैं; गाय दूध
वस्तुतः जो व्यक्ति स्वार्थी है और केवल अपना ही व्यक्तियों के जीवन से क्या लाभ है ? उनसे तो पशु ही जब तक जीवित रहते हैं सबका उपकार करते हैं । हम देखते देती है जिससे नाना प्रकार की पौष्टिक वस्तुएं बनती हैं शरीर को पुष्ट बनाती हुई उसे अधिक समय तक विद्यमान भी जीवन भर मनों भार ढोकर मनुष्य की कठिनाईयां हल करते हैं और
और वे मनुष्य के रखती है। बैल
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भला चाहते हैं ऐसे
अच्छे होते हैं । जो
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