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इन्सान ही ईश्वर बन सकता है !
१०६ कितनी सुन्दर शिक्षा है कि-आँखों में स्नेह का अमृत रखो, हृदय में दया रखो और किसी के द्वारा कहे हुए कुवचनों को कान तक ही रहने दो। तुम तो केवल भले बनो और दूसरों का भला करो। ___ मनुष्य की आँखें उसके हृदय की तालिका और आत्मा का प्रतिविम्ब होता है। आँखें ही मनुष्य के चरित्र, व्यक्तित्व और उसकी अन्तःप्रवृत्ति का एक मात्र दर्पण हैं। मन के प्रत्येक भाव को आँखों से भलीभाँति जाना जा सकता है। जिस प्रकार आँखों से क्रोध स्पष्ट झलकता है, उसी प्रकार स्नेह भी। __ भगवान महावीर की आँखों ने ही उनके अँगूठे में दंश देते हुए चंडकौशिक सर्प को अपने स्नेह के द्वारा मुग्ध कर लिया था तथा उसे अपने कृत कर्म का पश्चात्ताप करने को बाध्य किया था। आँखों की भाषा तो पशु-पक्षी भी सहज ही पढ़ लेते हैं। अधिक क्या कहें, छोटे-छोटे शिशु भी जान जाते हैं कि उनकी ओर देखनेवाले की दृष्टि में स्नेह है या नहीं। इसीलिये जनहितैषी पुरुष को अपने नेत्र सदा ही प्रेमामृत से छलकते हुए रखने चाहिये ताकि उसके कार्य का, उसकी बात का तथा उसके आचरण का प्रयत्न लोगों पर शीघ्र और स्थायी रहने वाला पड़े।
दूसरी बात है हृदय में रहम रखने को । रहम के विषय में आप भलीभाँति जानते हैं। जिसके हृदय में रहम या दया होगी वह कभी किसी पर अन्याय और अत्याचार तो करेगा ही नहीं, किसी का बुरा करने की भावना को भी वह अपने अन्दर नहीं पनपने देगा । दयालु व्यक्ति प्रत्येक प्राणी की आत्मा को परमात्मा का ही अंश मानता है । महात्मा कबीर ने भी कहा है
दया कौन पर कीजिये, का पर निर्दय होय ।
सांई के सब जीव हैं, कोरी कुंजर दोय ॥ अर्थात्-इस संसार में चींटी से लेकर हाथी तक, सभी प्राणी तो उस एक ही परम पिता परमात्मा के अंश हैं । फिर किस पर दया की जाय और किस पर निर्दयी बना जाय ? ___ आशय यही है कि व्यक्ति के समक्ष महापापी हो या पुण्यात्मा उसे सभी पर समान भाव से दया रखनी चाहिये । आचार्य हरिभद्र सूरि ने बड़ी मर्मस्पर्शी बात बताई है
सेयंबरो वा आसंबरो वा बुद्धो वा, तहेव अन्नो वा । समभाव-भाविअप्पा लहइ मोक्खं न संदेहो ।
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