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आनन्द-प्रवचन भाग-४
जिम्मेदारी और इज्जत के साथ रक्षा करता था, जितनी कि वह स्वयं अपनी पुत्री या पत्नी की करता।
कितना उच्च और महान् जीवन होता था उन प्राचीन लोगों का ? कैसी दुश्मनी होती थी उनकी ? अपनी शरण में आये हुए दुश्मन की रक्षा व्यक्ति अपने प्राण देकर भी करता था । यह किस वजह से ? अपने उत्तम संस्कार और सदाचार की वजह से ही तो । सदाचार ही उनके जीवन को न्यायप्रिय, निर्मल, निरहंकारी तथा गुण दृष्टि से सम्पन्न बनाता था। अपनी गुण दृष्टि के कारण ही वे दुश्मन के गुणों की कद्र करते थे। __आज पुनः भारतवासियों को सदाचार संबंधी महत्ता प्राप्त करने की आवश्यकता है जो किसी काल में उन्हें प्राप्त थी। व्यक्ति को यह कभी नहीं भलना चाहिए कि केवल प्रकृति के वशीभूत होकर चलने से तथा संसार के मोह में फंसकर नैतिकता और धार्मिकता को न अपनाने से आत्मा की स्वाभाविक पवित्रता धीरे-धीरे पापों से आच्छन्न हो जाती है । आत्मा भय, ग्लानि, हीनता एवं अन्य इसी प्रकार की भावनाओं से परिपूर्ण रहती हुई सदैव शंकित रहती है :
किन्तु सदाचारी पुरुष की आत्मा में अतुल बल होता है । अपने सदाचरण के कारण वह पापाचरण की ओर नहीं झुकता। परिणामस्वरूप उसके मन में पापों का भय नहीं होता उनसे परित्राण पाने का भी उसे प्रयत्न अधिक नहीं करना पड़ता । वह अपनी आत्मा को इतनी दृढ़ बना लेता है कि कुबुद्धि उस पर हावी नहीं होती और वह सहज ही कषायों के प्रकोप से बच जाता है।
कुछ व्यक्ति, जिनकी आत्मा कमजोर होती है और वे इन्द्रिय-जन्य सुखों के आकर्षण से अपने आपको नहीं बचा पाते, वे कलियुग का हवाला देते हुए कहते हैं- "क्या करें यह कलियुग है अतः इसका प्रभाव पड़े बिना नहीं रहता । कोशिश तो बहुत करते हैं किन्तु समय ही ऐसा है, फिर क्या करें ?"
ऐसा कहने वाले बड़ी भूल करते हैं । वे अपने साथ दुनियां को भी धोखा देना चाहते हैं। सत्य तो यह है कि सदाचारी पुरुष पर कलियुग का कोई प्रभाव नहीं पड़ सकता । सतयुग और कलियुग दोनों ही कहीं बाहर नहीं हैं। अगर व्यक्ति सद्गुणों का संचय करते हुए अपनी आत्मा को निर्लेप रखे एवं जीवन को सदाचार युक्त बनाए तो उसके अन्दर सतयुग का भाव बना रह सकता है और अगर वह कुसंगति में रहकर कषायादि विकारों में बह जाता है तो उसके अन्दर ही कलियुग जन्म ले लेता है ।
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