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________________ भव-पार करानेवाला सदाचार __पर खेद की बात है कि मध्यकाल में नारी की प्रतिष्ठा का ह्रास होता गया और ज्यों-ज्यों उसकी अवहेलना होती गई, त्यों-त्यों पुरुष वर्ग भी अवनति के गहरे गर्त में गिरता चला गया। सत्य भी है कि नारी को अबला बना देने के बाद वे स्वयं कैसे सबल रह सकते थे ! अबला सबल पुरुष को जन्म ही कैसे दे सकती है ? परिणाम आज हम देखते हैं कि पुरुष जाति निर्बल, निस्तेज और कदाचारी होती चली जा रही है। अब कवि की अन्तिम बात सुनिये दुश्मन की दुश्मनी में भी था जजबाए प्यार । इज्जत थी इन्कसार था और आपसका एतबार ॥ कितनी महत्त्वपूर्ण और गौरवपूर्ण बात है यह ? वास्तव में यह पूर्ण यथार्थ है। उस बीते युग में क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति दृढ़ चारित्र का धारक होता था सद्गुणों से परिपूर्ण भी । अतः आपस में दुश्मन होते हुए भी वे एक दूसरे का विश्वास करते थे, आज के समान धोखे और चोरी से एक दूसरे पर आक्रमण नहीं करते थे। उस समय दिनभर एक दूसरे से घोर युद्ध करने वाले भी रात्रि को युद्ध समाप्त करके एक-दूसरे के खेमे में जाते थे और बुजुर्ग योद्धाओं से युद्ध के दाव-पेंच भी सीख आते थे। महाभारत के युद्ध के ऐसे अनेक प्रसंग हैं जिसमें भीष्मपितामह, द्रोणाचार्य एवं युधिष्ठिर आदि ने अपने विरोधियों की भी निस्संकोच सहायता की है। कहते हैं कि रावण जब मृत्यु शैय्या पर पड़ा था, उस समय राम ने लक्ष्मण को रावण के पास नीति की शिक्षा प्राप्त करने के लिए भेजा था। अभिप्राय यही है कि उस जमाने में दुश्मन भी अपने दुश्मन का सम्मान करता था। सिकन्दर और पौरस की लड़ाई इतिहास प्रसिद्ध है। सिकन्दर ने पोरस को पराजित करके बंदी बना लिया था और जब वह सिकन्दर के समीप लाया गया तो सिकन्दर ने पूछा "पोरस ! अब बताओ तुम्हारे साथ कैसा वर्ताव किया जाय ?" "जैसा बादशाह को बादशाह के साथ करना चाहिए।" पोरस ने उत्तर दिया। ___ यह पोरस का उत्तर था जो उसने निडर और निस्संकोच होकर दिया था । सिकन्दर अपने दुश्मन पोरस का उत्तर सुनकर प्रभावित हुआ और उसने उसी समय अपने विरोधी वीर को सम्मान सहित मुक्त कर दिया। इतना ही नहीं, कभी-कभी तो ऐसा भी होता था कि व्यक्ति अपने घोर शत्रु के संरक्षण में ही अपनी पत्नी, पुत्री अथवा भाई या पुत्र को छोड़ देता था और उसका शत्रु उस दुश्मन से दुश्मनी रखता हुआ भी उसकी पत्नी या पुत्री की उसी स्नेह, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004007
Book TitleAnand Pravachan Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1974
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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