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________________ अल्प भोजन और ज्ञानार्जन ५१ महान् पश्चाताप हुआ और वह महात्माजी के चरणों पर लोटता हुआ बोला"भगवन ! मैं बड़ा पापी हूँ। महान् भूल की है मैंने, क्षमा कीजिये।" सेठ के पश्चाताप पूर्ण उद्गार सुनकर अब संत मंद-मंद मुस्कराते हुए बोले-"मित्र ! तुम्हारा कोई दोष नहीं है । तुमने जो कुछ भी कहा है वह किसी दृष्टि से तो ठोक ही है।" ___"मुझे शर्मिन्दा मत कीजिये महाराज ! मैंने आपको अत्यन्त कटु और असह्य शब्द कहे हैं किन्तु फिर भी आप मुझे मित्र कह रहे हैं।" देखो भाई ! महात्मा जी बोले-दो मित्र थे । उनमें से एक परदेश गया और वहां उसने अनेक नई-नई वस्तुएं देखीं। उनमें से एक बहुत बढ़िया चीज वह अपने मित्र के लिये खरीदकर लाया और अपने गाँव में आने के बाद उसने वह वस्तु मित्र के सामने रख दी। किन्तु पहला मित्र अपरिग्रह व्रत का धारी था अतः उसने उस कीमती वस्तु को ग्रहण करने से प्रेम सहित इन्कार कर दिया ।" "अब तुम्हीं बताओ कि जब मित्र ने उस वस्तु को लेने के लिये इन्कार कर दिया तो वह किसके पास रही ? जो लाया था उसके पास रही न ? बस इसी प्रकार तुम मेरे लिये कुछ लाए। किन्तु मुझे उसकी जरूरत नहीं थी। अतः मैंने उसे ग्रहण नहीं किया । तुम्हारी वस्तु तुम्हारे पास ही रही । मेरा उससे क्या बिगड़ा-बताओ " महात्मा की बात सुनकर सेठ और भी पानी-पानी हो गया तथा उनका सच्चा प्रशंसक बनकर अपने घर को लौटा । यह परिणाम था गम खाने का। हकीम लूकमान की तीसरी हिदायत थी-नम जाओ। नमना अर्थात् नम्रता रखना भी जीवन को सुखी बनाने का सर्वोत्तम नुस्खा है। जो व्यक्ति नम्र होता है वह अपनी किसी भी कामना को पूरी करने में असफल नहीं होता। नम्रता में अद्वितीय शक्ति होती है । एक पाश्चात्य विद्वान् ने कहा भी है: ___ "It was pride that changed angles in to devils; It is humility that makes men as angels." -आयस्टाइन अभिमानवश देवता दानव बन जाते हैं और नम्रता से मानव देवता । वस्तुतः अभिमान मनुष्य को नीचे गिराता है किन्तु नम्रता उसे ऊँचाई की ओर ले जाती है। महात्मा आयस्टाइन से एक ही बार किसी ने यह पूछ लिया-"धर्म का सर्वप्रथम लक्षण क्या है ?" उन्होंने उत्तर दिया "धर्म का पहला, दूसरा, तीसरा और किंबहुना सभी लक्षम केवल विनय में ही निहित हैं।" Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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