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________________ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग एक और उदाहरण ठाणांग सूत्र में आया है कि एक अवधिज्ञानी मुनि को अवधिज्ञान हो जाने के कारण मर्यादित प्रत्येक स्थान की वस्तुएँ दिखायी देने लगीं । उस ज्ञान के कारण उन्होंने देखा कि एक स्थान पर अपार धन छिपा पड़ा है । यह मालूम होते ही उनके मन में आया - "अरे, इतना सारा धन... ।" बस, यह विचार आना था कि उनका अवधिज्ञान लोप हो गया । ऐसा होता है सांसारिक धन-धान्य का आकर्षण । यद्यपि मुनि समस्त धन और परिग्रह मात्र का त्याग कर चुके थे किन्तु केवल धन को देखकर जो कौतूहल उन्हें हुआ, उतने से ही महान् प्रयत्नों से प्राप्त हुआ अमूल्य ज्ञान उनका नष्ट हो गया । ४२ इसीलिये महापुरुष कहते हैं— सांसारिक सुख प्राप्त होने पर गर्व से फूलो मत, और दुख प्राप्त होने पर व्याकुल मत होओ ! ऐसा जो कर पाते हैं वे महापुरुष बिरले ही मिलते हैं । संस्कृत भाषा में श्लोक कहा गया है। : संपदि यस्य न हर्षो, विपदि विषादो रणे च धीरत्वं । तं भुवनत्रय तिलक, जनयति जननि सुतं विरलम् ॥ अर्थात् - सम्पत्ति प्राप्त होने हर जिसे खुशी नहीं होती, विपत्ति आने पर खेद नहीं होता तथा संग्राम में जाने पर जो भयभीत नहीं होता, ऐसे त्रिभुवन प्रसिद्ध पुत्र को जन्म देने वाली माता बिरली ही होती है । प्रश्न उठता है कि मनुष्य राग-द्वेष के वशीभूत क्यों होता है ? मोह और ममता के बन्धन में पड़कर अपने पैरों पर आप ही कुल्हाड़ी क्यों मारता है ? उत्तर इसका यही है - 'भाव-निद्रा का त्याग न कर सकने के कारण ।' राग, द्वेष, मोह, क्रोध और कषायदि का अनुभव करना ही भाव-निद्रा है । जब तक इसका त्याग न किया जायेगा प्राणी सच्चा ज्ञान हासिल नहीं कर सकेगा और उसकी मोक्ष प्राप्ति की कामना अपूर्ण रहेगी । मेरे आज के कथन का सारांश यही है कि निद्रा चाहे भाव-निद्रा दोनों हो ज्ञान की प्राप्ति में बाधक हैं । अतः ही कल्याणकर है । ज्यों-ज्यों इसमें कभी की जायेगी, त्यों-त्यों मनुष्य की नैसर्गिक प्रकाश बढ़ता जायेगा और वह प्रकाश अज्ञान के करता हुआ आत्मिक गुणों को प्रकाशित करेगा । इस विशाल विश्व में केवल ज्ञान हो मन के विकारों को नष्ट करके आत्मा को अपने शुद्ध की क्षमता रखता है तथा उसको अपने लक्ष्य की ओर भी है : ज्ञानेन कुरुते यत्नं यत्नेन प्राप्यते महत् । Jain Education International For Personal & Private Use Only द्रव्य निद्रा हो या इनका त्याग करना आत्मा में ज्ञान का अन्धकार को नष्ट स्वरूप में लाने बढ़ाता है । कहा www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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