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________________ आनन्द प्रवचन अवस्था । जब मनुष्य के मन और मस्तिष्क पर ये विकृतियाँ हावी हो जाती हैं तो वह आत्मा के हानि-लाभ पर विचार ही नहीं कर पाता। भाव-निद्रा मनुष्य की ज्ञान-वृद्धि में बाधा तो पहुंचाती ही है साथ ही रहे हुए ज्ञान पर भी मूढ़ता या जड़ता का ऐसा आवरण डाल देती है कि उसका कोई उपयोग वह नहीं कर पाता । उसका ज्ञान मिथ्याज्ञान अथवा अज्ञान कहलाता है। मिथ्यात्व से परिपूर्ण चित्त वाले मिथ्यादृष्टि पुरुष का ज्ञान अज्ञान क्यों कहलाता है, इसके चार कारण एक श्लोक में बताए गए हैं । कहा है :-. सदसद विसेसणाओ, भवहेऊ जहिच्छिओवलंभाओ। नाण फलामावाओ, मिच्छादिस्सि अण्णाणं ॥ पहला कारण है-मिथ्यादृष्टि को सत्-असत् का विवेक नहीं होता। वह जीव को अजीव तथा अजीव को जीव कह देता है, बहन को माता या पत्नी कहने लगता है। रस्सी को सर्प समझकर दूर भागता है या सर्प को रस्सी समझकर उठाने का प्रयत्न करता है । जब वह पागल व्यक्ति ऐसा करता है, तब उसका ज्ञान यद्यपि बुद्धिमान व्यक्ति के ज्ञान के समान ही सत्य प्रतीत होता है किन्तु उसे सम्यक्ज्ञानी नहीं कहा जा सकता । एक बात और भी ध्यान में रखने की है कि मन की तरंगों के वशीभूत होकर जब मिथ्याज्ञानी व्यक्ति अपनी बहन को बहन भी मान लेता है तब भी उसकी निर्णयोचित बुद्धि के अभाव के कारण उसका ज्ञान सम्य ज्ञान नहीं कहलाता। विवेक के अभाव में उसका तथ्यज्ञान भी प्रमाणभूत नहीं माना जा सकता। दूसरी बात यह है कि वही ज्ञान, ज्ञान कहलाता है जो आत्मा के अनादिकालीन भव-बन्धनों को नष्ट कर उसे मुक्ति प्रदान करता है । जैसा कि कहा गया है : सा विद्या या विमुक्तये। वही विद्या अथवा ज्ञान, ज्ञान है जो मुक्ति दिला सकती है। मिथ्यादृष्टि का ज्ञान आत्मा को जन्म-मरण से मुक्त तो कर ही नहीं पाता अपितु उसे अधिक बढ़ाता है । अतः वह मिथ्याज्ञान या अज्ञान कहलाता है। ___ तीसरी बात यह बताई गई है कि मिथ्यादृष्टि का ज्ञान उसकी इच्छा पर अवलम्बित होता है। उसके मन को जैसा अच्छा लगता है, वह वैसा ही मान लेता है तथा लाख प्रयत्न करने पर भी अपनी धारणा को नहीं बदलता। वह अपनी प्रत्येक गलती को छिपाने के लिये नित्य नई गलतियां किया करता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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