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________________ २६ आनन्द प्रवचन । तृतीय भाग क्योंकि उद्यम के द्वारा ही ज्ञान की वृद्धि होती है तथा ध्यान, तपस्या अ दि में अभ्यास बढ़ता है। शास्त्रों में वर्णन आता है कि अनेकानेक महामुनि कई-कई प्रहरों तक एक आसन से ध्यान किया करते थे। यह उद्यम से ही संभव होता है। इसी प्रकार कठिन तप भी उद्यम के अभाव में नहीं किया जा सकता। अभ्यास से ही कई दिनों तथा महीनों को तपस्या की जाती है। अनेक प्रकार की सिद्धियाँ और लब्धियां उद्यम से प्राप्त होती हैं तथा दरिद्रों की दरिद्रता दूर होगी देखी जाती है । एक छोटा सा दृष्टान्त हैमृत सर्प के स्थान पर रत्नहार एक व्यक्ति अत्यन्त निर्धन था। यद्यपि उसके घर में पत्नी, पुत्र व पुत्री आदि कई सदस्य थे किन्तु सभी प्रमादी थे। जैसे-तैसे मेहनत मजदूरी करके पेट तो वे भरते ही थे किन्तु धन कमाने में कोई उत्साह और लगन से परिश्रम नहीं करते थे। निर्धन व्यक्ति का पुत्र बड़ा हुआ और पिता ने उसका विवाह भी कर दिया। नवागत पुत्रवधू यद्यपि एक गरीब की ही कन्या थी पर वह बहुत होशियार और उद्यमप्रिय थी। ससुराल में आते ही जब उसने देखा कि यहां के व्यक्ति सब पुरुषार्थहीन हैं तो उसने ससुर से कहा-"पिताजी ! ऐसे घर का काम कैसे चलेगा ? आपको धन प्राप्ति के लिए कुछ न कुछ प्रयत्न अवश्य करना चाहिए !" ससुर ने जबाब दिया- "हम क्या करें ? हमारे पास पूजी नहीं है । पूंजी के बिना कैसे कोई काम किया जा सकता है ?" बहू विनयपूर्वक बोली- "पूजी नहीं है तो कोई बात नहीं, आप अभी इतना ही करें कि जब भी घर से बाहर जायँ, खाली हाथ कभी न लौटें। जो कुछ भी आपको रास्ते में मिले चाहे वह रेत ही क्यों न हो लेकर आयें।" ससुर भला व्यक्ति था। उसने सोचा-'यही सही, देखें बह की बात का क्या परिणाम निकलता है। उसने अब प्रतिदिन जो कुछ भी माग में मिलता था लाना प्रारम्भ कर दिया। एक दिन जब वह कहीं से लौट रहा था, और तो कुछ नहीं मिला, रास्ते में एक मरा हुआ सर्प दिखाई दिया। उसे देखकर वह आगे बढ़ गया पर दोचार कदम ही गया था कि बहू की बात याद आई। सोचने लगा-'मेरी बहू ने कहा था, जो कुछ भी मार्ग में मिले ले आना।' यह ध्यान में आते ही वह पुन: लोटा और उस सर्प को उठा लाया। पर घर पर आखिर उस कलेवर का क्या उपयोग था ? अतः बहू ने उसे छत पर लेजाकर एक ओर डाल दिया। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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