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________________ UU पुरुषार्थ से सिध्दि धर्मप्रेमी बन्धुओ. माताओ एवं बहनो ! कल हमने श्री उत्तराध्ययन सूत्र के अट्ठासवें अध्याय की पच्चीसवीं गाथा के विषय में कुछ विचार किया था। उस गाथा में क्रिया-रुचि किसे कहते हैं तथा क्रिया-रुचि का स्वरूप क्या है ? इसका स्पष्टीकरण किया गया है। गाथा में पहला शब्द 'दर्शन' तथा दूसरा शब्द 'ज्ञान' है । इन दोनों पर कुछ विवेचन कल किया था, और आज भी ज्ञान के विषय में ही कुछ कहा जाएगा। ज्ञान किसे कहते हैं ? इस प्रश्न का उत्तर इस प्रकार दिया जा सकता है 'ज्ञायते अनेन इति ज्ञान" अर्थात्-जिससे जाना जाय उसको ज्ञान कहते हैं अथवा जिसमें जानने की शक्ति हो वह ज्ञान कहलाता है । __ वस्तुतः ज्ञान जीव एवं अजीव सभी पदार्थों की पहचान कराता है और जब तक किसी वस्तु की पहचान नहीं होती उसका कोई मूल्य नहीं होता। उद हरणस्वरूप एक छोटे शिशु के सामने हम चाहे अमूल्य रत्न रख दें और चाहे अफीम की ढेली। ज्ञान के अभाव में शिशु न रत्न का महत्त्व जान सकता है और न ही अफीम का दोष । न वह रत्न के मूल्य से लाभ उठा सकता है और न अफीम के विनाशक प्रभाव से अपने आपको बचा सकता है । वह दोनों को समान रूप से हाथ में लेकर खेलता है अथवा मुह में भरने का प्रयत्न करता है। किन्तु एक बड़ा व्यक्ति ऐसा नहीं करता । वह दोनों के गुण और दोष को समझता हुआ उपयोग करता है । ऐसा क्यों ? इसलिये कि उसे रत्न और अफीम की पहचान होती है जो शिशु में नहीं होती। पहचान के अभाव में सगा पुत्र भी पराया जान पड़ता है। गोबर इकट्ठा करने वाला धनवान एक निर्धन व्यक्ति ने अपनी गरीबी से परेशान होकर अपने पुत्र को उसी गांव के कुछ व्यक्तियों के साथ परदेश भेज दिया जो कि धन कमाने की इच्छा से जा रहे थे । कई वर्ष तक वह बालक उधर ही रहा और धीरे-धीरे बड़ा हो Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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