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________________ जीवन को नियंत्रण में रखो ३२७ जब तक आप व्रत ग्रहण नहीं करते आपको कहीं कोई दिक्कत महसूस नहीं होती और आप खुले रहते हैं, किन्तु व्रत ग्रहण करने के पश्चात् आपको मर्यादा में रहना पड़ता है। रात्रि भोजन का आप त्याग करते हैं तो समय पर खाना पड़ेगा | दिशा की मर्यादा की है तो उससे आगे नहीं जा सकते | धन की सीमा निश्चित कर ली है तो सीमा से अधिक नहीं रख सकते | अहिंसा सत्य, अचौर्य और ब्रह्मचर्य का भी पालन करना होगा । इस प्रकार जितना त्याग किया जाय उसका पालन भी चाहे जितनी परेशानियाँ क्यों न सामने आएँ, करना तो पड़ेगा ही । व्रतों का ग्रहण करना अपने आपको एक सीमा बाँध लेना होता है जिसका आपको उल्लंघन नहीं करना चाहिए । ऐसा करने पर ही आप सच्चे श्रावक कहला सकते हैं । आपका जीवन मर्यादित सन्तुलित और सुन्दर बना सकता है। नदी जब तक अपने दोनों किनारों के बीच में बहती है, तभी तक उसकी महना है । अगर वह अपनी सीमा अर्थात् अपने किनारों को तोड़कर वह निकलती है तो लोग उससे भयभीत होकर यत्र-तत्र भागने लगते हैं । इसी प्रकार श्रावक धर्म का पालन करना भी सहज नहीं है काफी कठिनाइयों से भरा हुआ है किन्तु हमारा साधु धर्म तो और भी कड़क है उसमें कोई सीमा या छूट नहीं है । पाँच महाव्रतों का पूर्णतया पालन करना पड़ता है । आपको जानने की जिज्ञासा होगी कि यह सब तकलीफें और परीषह किसलिए सहन करना ? उत्तर यही है कि बिना त्याग और तप के जीवन विशुद्ध नहीं बन सकता । त्याग के अभाव में इन्द्रियाँ भोगों की ओर बेतहासा दौड़ती हैं उन पर संयम नहीं रखा जा सकता । मनुष्य जीवन-भर भोगों को भोगकर भी तृप्त नहीं होता भले ही वृद्धावस्था क्यों न आ जाय । इसीलिए भर्तृहरि ने कहा है अवश्यं यातारश्चिरतर मुषित्वाऽपि विषया । वियोगे को भेदस्त्यजति न जनो यत्स्वयममूम् ॥ व्रजन्त: स्वातंत्र्यादतुल परितापाय मनसः । स्वयं त्यक्त्वा ते शम-सुखमन्नतं विदधति ॥ विषयों को हम चाहे जितने दिनों तक क्यों न भोगें, एक दिन वे निश्चय ही हमें छोड़कर अलग हो जाएँगे । ऐसी स्थिति में मनुष्य उन्हें स्वयं अपनी इच्छा से ही क्यों न छोड़ दे क्योंकि इस जुदाई में फर्क ही क्या है कि मनुष्य उन्हें नहीं छोड़ेगा तो वे मनुष्य को छोड़ देंगे । उस स्थिति में उसे बड़ा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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