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३२४ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग नहीं जाने देते । वे भली-भांति जान लेते हैं कि कर्म-बन्धनों के मूल कारण राग और द्वेष ही हैं, जब तक इन्हें नहीं जीत लिया जाता, स्वर्ग और मुक्ति की कामना निरर्थक है।। ____साधारण पुरुषों की तो बात ही क्या है भगवान महावीर के शिष्य स्वयं गौतमस्वामी को भी भगवान के प्रति जब तक राग भाव रहा, वे केवल ज्ञान की प्राप्ति नहीं कर सके । यद्यपि उनका भगवान के प्रति प्रशस्त राग था । देव, गुरु और धर्म के प्रति जो राग होता है वह प्रशस्त कहलाता है तथा संसार के अन्य पदार्थों के प्रति रहा हुआ राग अप्रशस्त की कोटि में आता है। __तो अपने गुरु के प्रति भी गौतम स्वामी का प्रशस्त राग था किन्तु उसके कारण भी उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकी। कई बार इसके लिए उनके मन में बड़ा ख्याल आया और
एक दिन गौतम मन चितवे जी, मने क्यों न उपजे केवल ज्ञान ? खेद पाम्या प्रभु देखने,
बुलाया श्री वर्धमान जी। अर्थात् एक दिन गौतम स्वामी बड़े दुःख पूर्वक विचार करने लगे कि मेरे अनेक गुरु भ ई केवल ज्ञान की प्राप्ति करते जा रहे हैं किन्तु मुझे वह क्यों नहीं प्राप्त होता?
उनकी इस विचारधारा को सर्वज्ञ प्रभु ने जान लिया और उन्हें अपने समीप बुलाकर परम स्नेह से कहा
थारे ने म्हारे गोयमा, घणा काल नी प्रीत ।। आगे ही आपाँ भेला रह्या, 'बलि लोड़ बड़ाई नी रीत जी। मोह कर्म ने लीजो जीत जी, केवल आड़ी छे याही भीत जी। क्या कहा भगवान ने ? कहा था-हे गौतम ! तुम्हारा और मेरा बहुत समय यानी बहुत जन्मों से स्नेह चला आ रहा है । बड़े-छोटे बनते हुए इसी प्रकार हम पहले भी साथ रहे हैं । पर अब तुम मेरे प्रति रहे हुए मोह को जीतो । क्योंकि तुम्हें केवल ज्ञान प्राप्त होने में मात्र यही एक रुकावट है।
इसी प्रकार मस्तक पर मंडराता हुआ केवल ज्ञान गौतम स्वामी को प्राप्त नहीं हो सका था, जब तक उनका भगवान के प्रति प्रशस्त या विशुद्ध राग रहा । जब उनका चिंतन इसके विपरीत चला और उन्होने विचारा कि आत्मा का कोई नहीं हैं सब अपने-अपने कर्मों का फल भोगते हैं किसी पर भी राग रखना निरर्थक है, तो क्षण भर में उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हो गई। राग दशा से ऊपर आते ही उनके लक्ष्य की पूर्ति हुई और सिद्ध बने ।
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