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________________ काँटों से बचकर चलो ३११ अर्थात्-मेग आत्मरूप धन अनन्त है । उसका अन्त कदापि नहीं हो सकता । इस मिथिला के जलने से मेरा कुछ भी नहीं जल सकता। राजा जनक के यह वचन सुनते ही शुकदेव को बोध हो गया कि वास्तव में जनक सच्चे ज्ञानी हैं, जिन्हें किसी भी सांसारिक पदार्थ में आसक्ति नहीं है और जो व्यक्ति ऐसे-आराम के साधनों का उपभोग करते हुए भी राजा जनक के समान संसार से अनासक्त रहता है, वही ज्ञानी मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। उन्हें अपने आप में भी लज्जा महसूस हुई कि जहाँ राजा जनक मिथिला के जल जाने से भी व्यग्र नहीं हुए, वहाँ मैं अपने दण्ड-कमण्डल के जल जाने की सम्भावना से ही विकल हो उठा था। अब उन्हें जनक से उपदेश प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं रही थी अतः वे वहाँ से उलटे पैरों लोट आए। उदाहरण से स्पष्ट है कि ममता और असक्ति ही समस्त दुखों का कारण है। जिस भव्य प्राणी की किसी भी पदार्थ में ममता नही होती, वह चाहे साधु हो या गृहस्थ, अवश्य ही मुक्ति का अधिकारी बन सकता है। परन्तु जो व्यक्ति घर छोड़कर सन्यासी का वेश धारण कर लेता है पर मन से अपनी वस्तु पर से उसका मोह समाप्त नहीं होता, वह सन्यासी का बाना पहनकर भी कभी अपनी आत्मा का कल्याण नहीं कर सकता। उसके लिये ज्ञान, दर्शन और चारित्र कुछ भी मूल्य नहीं रखते । न वह उन्हें प्राप्त ही कर सकता है और न उन्हें जीवन में उतार सकता है। इसलिये बंधुओ, सर्वप्रथम हमें सांसारिक प्रलोभनों को ही जीतना है उन पर ममता हटने पर ही हम संसार को जीत सकेंगे। एक पाश्चात्य विद्वान् ने भी कहा है : "Every moment of resistance to temptation is a victory." -- प्रलोभन के अवरोध का प्रत्येक क्षण विजय है। -फेबर अगर व्यक्ति सांसारिक पदार्थों से ममत्व नहीं हटायेगा तो वह कदापि आत्म-साधना के मार्ग पर नहीं चल सकेगा। क्योंकि इस मायामय संसार में कदम-कदम पर प्रलोभन के काँटे बिछे हुए हैं और उनमें उलझ-उलझ कर राही या तो भटक जाएगा अथवा निराश होकर अपना मार्ग छोड़ बैठेगा। एक कवि ने यही बात कही है :-- संभल संभल कर चलना रे जग में । कंटक बिछे पड़े पग-पग में ॥ कहते हैं-अरे चेतन ! अगर तू अपनी आत्मा को शुद्ध, बुद्ध और अरिहंत. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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