SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 326
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ कांटों से बचकर चलो ३०६ यह बात इस प्रकार सच भी है कि चाँदी को खरीदने वाले बहुत मिल जायेंगे, सोने को खरीदने वाले गिने चुने और रत्नों को खरीदने वाले तो बिरले ही मिलते हैं सम्यक् ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र अमूल्य रत्न हैं और इन्हें वही ग्रहण करता है जो समग्र संसार से विमुख हो जाता है। गौतमस्वामी सांसारिक प्रलोभनों को जीत चुके थे इसीलिए पांच महाव्रतों को धारण करके वे श्रमण बन सके। वे जान गये थे कि यह संसार मिथ्या और असार है, माया ने इसमें अपना जाल बिछा रखा है और जो इसमें फंस जाता है वह कहीं का नहीं रहता। एक कवि ने भी कहा है : इस जाल में सब उलझाये दुनिया है गोरख धन्धा । डाल रखा है सबने गले में, लोभ मोह का फन्दा ।। फिर भी सकल जगत है अन्धा । इस दुनिया के सुख भी झठे, इसका प्यार भी झठा।। सावधान हो इस ठग नीने है बड़ों बड़ों को लूटा। मूरख मत बन इसका बन्दा । कवि का कथन यथार्थ है । यह जगत वास्तव में हो गोरखधन्धा है। जिधर देखो उधर ही व्यक्ति लोभ, मोह, विषय. विकार तथा अन्य नाना प्रकार के जाल में फंसा हुआ है । माया का प्रलोभन इतना जबर्दस्त है कि उसके कारण उसकी दृष्टि अपने भविष्य की ओर नहीं जाती तथा परलोक में क्या होगा, इसका भी उसे ख्याल नहीं आता। किन्तु महापुरुष इसीलिए तो प्राणी को बार-बार चेतावनी देते हैं कि यह जगत और इसके प्राप्त होने वाले सुख सच्चे नहीं हैं केवल सुखाभास ही कराते हैं । इस जगत के समस्त सम्बन्धी जो प्यार जताते हैं, उसमें भी स्वार्थ के अलावा कुछ नहीं होता। इसीलिए हे प्राणी ! बड़े-बड़े राजा महाराजाओं, सेठसाहूकारों तथा पदवीधारियों को जिस मायामय जगत ने लूट लिया है उससे सावधान रह, मूर्ख बनकर इसके फंदे में मत फंस अन्यथा यहां से विदा होते समय केवल पश्चात्ताप ही तेरे हाथ आएगा। ___ जो भव्य जीव इस बात को समझ लेते हैं वे चाहे साधु बन जाय या घर में रहें; इस संसार में जल कमलवत् निलिप्त रहते हैं । इस विषय में उदाहरणस्वरूप एक बड़ा सुन्दर उदाहरण ग्रन्थों में मिलता है मिथिला जलती है तो जलने दो! एकबार महर्षि व्यास ने अपने पुत्र शुकदेव से कहा- "तुम राजा जनक के पास जाकर उनसे उपदेश ग्रहण करो।" शुकदेव पिता की आज्ञानुसार मिथिलानगरी की ओर चल दिये । वहाँ पहुँचकर वे राजमहल के द्वार पर जा Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy