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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
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अपने शरीर पर लाद कर चल पड़ता है उसे आखिर में भार फेंककर पश्चात्ताप करना पड़ता है । इससे लाभ के बजाय हानि हो होती है । अतः बोझ उतना ही लेना चाहिए जितना उठाया जा सके यह बात त्याग नियम और महाव्रतों के धारण करने के लिए लागू होती है । अर्थात् त्याग करने से पहले मन को पक्का करके ही उन्हें करना चाहिए और उतना ही त्याग करना चाहिए जो अन्त तक निभाया जा सके । अपनी मन को शक्ति और दृढ़ता से अधिक त्याग कर देना यानि नियम ग्रहण कर लेने से उन्हें निभाना कठिन हो जाता है तथा उन्हें भंग करके घोर पश्चात्ताप करना पड़ता है। अतः जिस काम का बीड़ा लो, जिसे उठाओ उसे पूरा करके छोड़ो तभी क्ल्याण हो सकता है । जोश या ओरों की देखा-देखी के कारण शक्ति से अधिक व्रत नियम ग्रहण करके उन्हें बिना अन्त तक निभाए छोड़ देने से आत्मा का अकल्याण होता है तथा असंख्य कर्मों का बन्धन होता है ।
आपने शास्त्रों में अरणक श्रावक तथा कामदेव श्रावक आदि के विषय में पढ़ा होगा वे लोग भगवान महावीर के दर्शनार्थ आये और उनके उपदेश को भी सुना । सुनकर मन में विचार आया- 'भगवान का कथन यथार्थ है, इस संसार में कोई किसी का नहीं है । केवल धर्म आखिरी समय सहारा देने वाला है । इसलिए अनेकों राजा, महाराजा, श्रेष्ठि और बड़े-बड़े महारथी अपना सब कुछ त्यागकर भगवान की सेवा में उपस्थित हुए हैं तथा आत्मसाधना में जुटे हुए हैं । हमें भी इन सांसारिक उलझनों से निकलकर आत्मकल्याण करना चाहिए ।'
इस प्रकार उनके हृदय में विरक्ति की भावना आती है और वे इस सम्बन्ध में सोचते हैं । किन्तु साथ ही अपनी सामर्थ्य पर दृष्टिपात करते हैं कि चारित्र धर्म अंगीकार कर तो लें पर उसे निभा सकेंगे या नहीं ? विचार करते-करते आनन्द जी ने निश्चय किया - अभी मेरा चारित्र धर्म ग्रहण करना उचित नहीं है । भावना है पर उतनी सामर्थ्य नहीं है । क्योंकि मेरे पास चार गोकुल हैं, पाँच सौ हल चलें उतनी पृथ्वी है, चार करोड़ सोनँया जमीन में हैं, चार करोड़ घर के पसारे में और चार करोड़ व्यापार में तथा अनेकों जहाज हैं । ऐसी स्थिति में मेरा संयम ग्रहण करना उचित नहीं है अतः ठीक यही है कि मैं श्रावक के बारह व्रत धारण करू । अपने विचारानुसार उन्होंने श्रावक के व्रत ही धारण किये । पर उन्हें निभाया किस प्रकार ?
अरणक श्रावक को देवता ने परीक्षा लेने के लिए नाना प्रकार से सताया, उनके जहाज को समुद्र में डुबा देने की धमकियाँ दीं, यहाँ तक कि उन्हें मार डालने का भी डर दिखाया । रंचमात्र भी नहीं डिगे ।
किन्तु वे अपने धर्म से
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