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________________ २३ वमन की वाञ्छा मत करो ! धर्मप्रेमी बन्धुओ ! माताओ एवं बहनो ! श्री उत्तराध्ययन सूत्र के दसवें अध्याय में भगवान महावीर ने गौतम स्वामी को लक्ष्य करके सयम मार्ग से तनिक भी विचलित न होने का आदेश दिया है । उन्होंने कहा है - चिच्चा ण धणं च भारियं, osओहिसि अनगारियं । मा बंतं पुणो कि आविए, सममं गोयम ! मा पमायए ।। अर्थात् - " हे गौतम ! तू धन और भार्या आदि को छोड़कर – अनगार भाव को प्राप्त हुआ है अर्थात् दीक्षित हो गया है। अब इस वमन किये हुए को फिर तू ग्रहण न कर और समय मात्र का भी प्रमाद मत कर ।" इस गाथा के द्वारा शिक्षा दी गई है कि धन, धान्यादि समस्त वस्तुएँ, अतुल वैभव और स्त्री, पुत्र आदि सभी का त्याग करके जिन मोक्षाभिलाषी व्यक्तियों ने संयम ग्रहण किया है उन्हें पुन: कभी भी इन सबकी वांछा नहीं करनी चाहिये । क्योंकि त्यागी हुई वस्तु वमन समान होती है और उन्हें ग्रहण करना वमन को ग्रहण करना ही कहलाता है । राजुल और रथनेमि की कथा इसका ज्वलंत उदाहरण है । जब भगव न नेमिनाथ विवाह करने के लिये गए पर तोरण द्वार से लोटकर दीक्षित हो गए तो उनका छोटा भाई रथनेमि मन-ही-मन में अत्यन्त प्रसन्न हुआ । यह विचार कर कि अब राजोमतो से मेरा विवाह हो सकेगा । Jain Education International वह राजीमती के पास स्वयं ही गया और उससे अपने साथ विवाह करने आग्रह किया । किन्तु राजोमती सती बुद्धिमान थी । उसने उत्तर दिया"पहले तुम मेरे लिये भेंट में ऐसी वस्तु लाओ जो संसार में प्रत्येक प्राणी को प्रिय और लाभकारी हो ।" For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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