SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 254
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समय का मूल्य आँको २३७ व्यक्ति मोह में अन्धा होकर अपना हानि-लाभ नहीं देखता । इन्द्रियसुखों के फेर में पड़ जाने से उसकी तृष्णा बलवती होती जाती है और उसकी पूर्ति न हो पाने के कारण वह आकुल-व्याकुल होता है आसक्ति के कारण क्रोध करता है तथा क्रोध जनित मोह के कारण इस संसार में फँसता चला जाता है। इसका कारण यही है कि वह न मानव जन्म के महत्त्व को समझता है और न ही समय की कीमत आंकार ज्ञान-दृष्टि से जगत की असारता को जान पाता है । केवल भौतिक ज्ञान की पुस्तकों को रट-रटाकर अवश्य ही अपने आपको वह विद्वान और चतुर व्यक्ति की श्रेणी में समझने लगता है तथा अपनी शिक्षा के हठ से जिप प्रकार तोता बहेलिये के जाल में फंस जाता है और बन्दर रोटी के लोभ में मदारी के कब्जे में आ जाता है उसी प्रकार वह विषयों के लालच में आकर संसार के जाल में उलझ जाता है । भोगों की लालसा उसे ठीक उसी प्रकार जगत के बन्धन में बांध देती है, जिस प्रकार कांटे में लगी हुई रोटी या आटे को खाने के लालच में मछली जाल में फंस जाती है। कितने खेद की बात है कि मनुष्य इस दुर्लभ देह, अर्य क्षेत्र उच्च जाति अथवा परिपूर्ण इन्द्रियां पाकर भी आत्म-मुक्ति के अपने विराट उद्देश्य और लक्ष्य की ओर ध्यान नहीं देता। वह केवल दुनियादारी के धन्धे में ही फंसा रहता है । जिस प्रकार पशु अपने भविष्य की कोई कल्पना नहीं करते उसी प्रकार संसार के सुखों में गृद्ध प्राणी भी अपने भविष्य का ख्याल नहीं करते । ऐसे मूढ़ प्राणियों में और पशुओं में आकृति के भेद के अलावा और क्या अन्तर समझा जाय ? कुछ भी नहीं । ऐसे व्यक्तियों का महापुरुष बार-बार समझाते हैं । कहते हैं क्या देख दिवाना हुआ रे ? माया बनी सार की सुई और नरक का कुआ रे । हाड़ चाम का बना पांजरा तामें मनुआँ सूआ रे। भाई बन्धु और कुटुम्ब कबीला तिनमें पच-पच मूआ रे । कहत कबीर सुनो भाई साधो, हार चला जग जूआ रे । महात्मा कबीर का कथन है-हे भोले प्राणी ! तू इस संसार में क्या देखकर दिवाना हो रहा है ? इस जगत में जो कुछ भी दिखाई देता है सब नश्वर और मिथ्या है, केवल माया है जो कि सार की सुई के समान आत्मा को सदा कोंचती रहती है । दूसरे शब्दों में यह जगत अपने नाना प्रकार के आकर्षणों से मनुष्य को लुभाता है और उस पर कर्मों का अनन्त बोझा लादकर मरक रूपी गहरे कुए में ढकेल देता है । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy