SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मुक्ति का मूल : श्रद्धा २२५ दाँत दिखावत जीभ हिलावत, या हित मैं यह डाकिनी जानी। सुन्दर खात भये कितने दिन, हे तृस्ना ! अजहूं न अघानी ।। तृष्णा के विषय में कहा है कि यह तीनों लोकों का आहार कर-करके भी अघ ती नहीं तया सातों सागरों का पानी पी-पी करके भी तृप्ति नहीं होती । यह सर्वत्र डोलती हुई अपनी भयंकर दृष्टि से प्राणियों को डराती तथा धमकाती है और उन्हें अपने वश में कर लेती है। मुझे तो ऐसा लगता है कि यह सदा भूखो रखने वाली तथा अतृप्त रहने वाली एक डाकिनी ही है । - वस्तुतः इस तृष्णा के फेर में पड़कर बड़े-बड़े बुद्धिमान और समझदार भी अन्त में बड़े दुःखी होते हैं और पश्चाताप करके अन्त में इसे कोसते हैं । ____ यही हाल उस लकड़हारे का भी हुआ। अतल वैभव प्राप्त करके भी उसे सन्तोष नहीं हुआ और वह फिर एक दिन सन्त के पास जा पहुंचा । सन्त उसे देखकर चकित हुए और बोले - ''भाई ! अब तो तुम इतने बड़े सेठ हो गये हो, अपार दौलत तुम्हारे पास है अब क्या चाहते हो ?" __से बोला “भगवन् ! आपकी कृपा जब मेरे ऊपर हो गई है तो एक छोटा मोटा राज्य भी मिल जाय तो क्या बड़ी बात है। इतनी कृपा और हो जाय आपकी तो जीवन भर आपका एहसान नहीं भूलूगा।" सन्त को सेठ की बात सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ और मन में क्रोध आया सोचने लगे – 'इस व्यक्ति को मैंने एक लकड़हारे से इतना बड़ा सेठ बना दिया तब भी इसको तृष्णा समाप्त नहीं हुई ?' उन्होंने कहा- 'लाओ हथेली फैलाओ।'' सेठ जी ने बड़ी आशा और उत्साह से हथेली महात्मा जी के आगे फैला दी। ___ सन्त ने उसी क्षण सेठजी की हथेली पर से समस्त बिन्दियों को छोड़कर एक अंक मिटा दिया। परिणाम यह हुआ कि सेठ राजा बनने के स्थान पर पुनः लकड़हारा बनकर रह गया। वह कहावत सार्थक हुई कि "चौबे जी छब्बे बनने गये और दुबे ही रह गये ।' इसलिये पूज्यपाद कवि श्री अमीऋषि जी महाराज ने कहा है - जो पर द्रव्य में रत रहते हैं और तृष्णा के फेर में पड़कर अपने हृदय में मिथ्यात्व का पोषण करते हैं, उनकी आत्मा में धर्म की क्षुधा नहीं जागती। आगे कहा है - मन लीन परिग्रह आरम्भ में, प्रभु सीख न धारत भेद दुधा ॥ जु अमीरिख जीव अभव्य हुवे, तिनको न रुचे जिन बैन सुधा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy