SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ विनय का सुफल १६१ जाता है । जिस देश में उसने जन्म लिया है, जहाँ की हवा और पानी ने उसके शरीर का पोषण किया है उसके प्रति मानव का कर्तव्य है कि वह जहाँ जिस प्रकार की जरूरत हो उसे पूरा करने में तत्पर रहे। यही देश के प्रति विनय की भावना कहलाती है । अब लोकोपचार विनय का अन्तिम और सातवां भेद हमारे सामने आता - 'सम्वत्थेसुयपडिलोमया ।' अर्थात् समस्त सांसारिक पदार्थों पर अनासक्त भाव रखना । भावना का जीवन में बड़ा भारी महत्त्व होता है । क्योंकि कर्मों का बन्ध भावनाओं पर ही आधारित है । अगर व्यक्ति की किसी वस्तु आसक्ति नहीं है तो वह भले ही चक्रवर्ती क्यों न हो, और अनेकानेक इन्द्रिय सुखों का उपभोग क्यों न करता हो, अपनी आत्मा को मुक्ति की ओर ले जाता है तथा असक्ति रहने पर एक दरिद्र भी परिग्रह के पाप का भागी बनकर नरक की ओर प्रयास करता है । संसार में अनेक व्यक्ति ऐसे हैं जो गेरुआ वस्त्र पहनकर लम्बी-लम्बी मालाएँ गले में डाल लेते हैं तथा अपने आप को साधु घोषित कर देते हैं किन्तु अनेक बार रात के अँधेरे में उन्हें सिनेमाघरों में बैठे हुए पाया जाता है । वस्त्र वैरागियों जैसे और मन भोगियों जैसा हो तो आत्म-कल्याण किस प्रकार होगा ? बनाना तो मन को वासनाहीन है न ! मन जब भोगेच्छाओं से रहित हो जाता है तो उस पर सच्चे वैराग्य और भक्ति का रंग शीघ्र चढ़ता है । और इसके विपरीत अगर मन वासनाओं की कालिमा से काला बना हुआ है। तो उस पर वैराग्य का रंग चढ़ना सम्भव नहीं है । सच्चा साधु तो अपने मन और इन्द्रियों को अपने वश में करता हुआ लक्ष्मी से कहता है -- मातर्लक्ष्मि भजस्व कंचिदपरं मत्कांक्षिणी मा स्म भूभगेम्य: स्पृहयालवो नहि वयं का निस्पृहाणामसि ? सद्य. स्यूत पलाश पत्र पुटिका पात्रे पवित्रीकृते, भिक्षासक्त भिरेव सम्प्रति वयं वृत्ति समीहामहे । -- भर्तृहरि 1 अर्थात् -- 'हे मा लक्ष्मी ! अब तो तू किसी और की तलाश कर; मुझे तो विषय भोगों की तनिक भी चाह नहीं है । मेरे जैसे निस्पृह और इच्छा रहित व्यक्ति के लिए तू सर्वथा तुच्छ है, क्योंकि मैंने अब पलाश के पत्रों के दोनों में केवल भिक्षा के सत्तू से ही गुजारा करने का संकल्प कर लिया है । बन्धुओ ! जो प्राणी इस प्रकार अपनी इच्छाओं को समाप्त कर देता है, किसी भी पदार्थ पर आसक्ति नहीं रखता तथा सुख भोग और धन वैभव को Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy