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________________ १७४ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग पुत्रों को आदेश दिया-"जितना भी धन ले जा सको ले जाकर किसी अन्य राजा के राज्य में रहो !". पुत्रों ने पिता की आज्ञा का पालन किया और धन-माल लेकर किपा अन्य स्थान पर चले गये । इधर मन्त्री ने बचा हुआ धन गरीबों को बांट दिया और स्वयं चुपचाप जंगल की ओर चल दिया। जंगल में जाकर उसने घासफूस की एक छोटी-सी झोपड़ी बनाई और उसमें रहकर तप करने लगा। ___ जब दो-चार दिन बाद उस विषयी राजा के राज्य में मन्त्री के न होने से बड़ी अव्यवस्था हो गई तो राजा को मन्त्री का ध्यान आया। उसने अपने कर्मचारी मन्त्री को बुलाने के लिए भेजे किन्तु उन्होंने लौटकर यही उत्तर दिया-“मन्त्री तो सन्यासी बन गये हैं और तपस्या करने में लग गए हैं।" तब राजा स्वयं जंगल में मन्त्री के पास गया और बोला- "मन्त्रिवर ! तुम तो इतने बड़े राज्य के सम्पूर्णतः कर्ता-धर्ता थे तथा प्रचुर धन तुम्हारे पास था, फिर क्यों सन्यासी हो गये हो ? इस तपस्या में लग जाने से तुम्हें क्या हासिल हुआ ?" __ मन्त्री ने उत्तर दिया-"महाराज ! मेरे सन्यासी बन जाने और तपाराधन करने से प्रथम तो यही हुआ है कि जहाँ मैं आपके द्वार पर घंटों बैठा रहता था और आप दर्शन भी नहीं देते थे, आज स्वयं ही चलकर मेरे पास आए हैं । यह केवल मेरे दो-चार दिन के तप ही का फल है। अधिक करने पर फिर क्या लाभ होगा यह अगला समय बताएगा। किन्तु यह तो निश्चित है कि धन-वैभव और विषय-भोगों का त्याग कर देने पर तुरन्त ही शुभ फल की प्राप्ति होने लगती है । जब तक मैं आपका मन्त्री बनकर इन सांसारिक सुखों को सुख मानता रहा, मुझे एक दिन के लिये भी शांति प्राप्त नहीं हुई। पर आज सब को छोड़ देने से मैं अपने आपको बड़ा हल्का मानता हूँ तथा मेरा चित्त बड़ी शांति का अनुभव करता है । वास्तव में ही इन्द्रियों का दास बनने से बढ़कर संसार में और कोई दुःख नहीं है। इसलिए मैं सब छोड़छाड़कर ताराधन में लग गया है और अब आपके राज्य में लौटकर नहीं आऊँगा।" मन्त्री की बातें सुनकर राजा की भी आँखें खुल गई और वह भी अपने पुत्र को राज्य सौंपकर साधु बन गया तथा अपने मन और इन्द्रियों को पूर्णतः वश में करके तपश्चर्या में लीन हो गया। आगे कहते हैं-वृक्ष में पत्तियां भी होती हैं, वे पत्तियां कौन-सी हैं ? उत्तर दिया हे दैदीप्यमान अभयदान करने की जो प्रवृत्ति है वे ही इस तप-रूपी कल्पवृक्ष की पत्तियाँ हैं । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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