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१७२ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
हृदय में शांति का आविर्भाव होना और उसका वहाँ स्थिर रहना अत्यन्त कठिन होता है, सहज नहीं क्योंकि शांति उसी को प्राप्त होती है, जो अपनी सारी इच्छाओं का त्याग कर देता है तथा मैं और मेरेपन की भावना से मुक्त हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को कभी शांति नसीब नहीं होती जो सदा कहा करता हैमेरो देह मेरो गेह, मेरो परिवार सब,
मेरो धन-माल, मैं तो बहु विधि भारो हूं। मेरे सब सेवक, हुकम कोऊ मेटे नाहि,
... मेरी युवती को मैं तो अधिक पियारो हूं ॥ मेरो वंश ऊँचो, मेरे बाप-दादा ऐसे भये,
___ करत बड़ाई मैं तो जगत उजारो हूं। सुन्दर कहत मेरो-मेरो करि जाने शठ,
ऐसे नहीं जाने, मैं तो काल ही को चारो हूं ॥ "मेरी देह, घर, कुटुम्ब, धन-माल सभी मेरा है । मैं बहुत बड़ा आदमी हूँ। कोई सेवक मेरी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता ! मेरी पत्नी मुझे अत्यन्त प्यार करती है, मेरा कुल और वंश बड़ा ऊँचा है । मेरे दादा-परदादा बड़े नामी व्यक्ति थे और मैं स्वयं भी एक दीपक के समान हूँ।"
कवि सुन्दरदासजी कहते हैं कि ऐसी बड़ाई करने वाला और घमण्ड में चूर रहने वाला मूर्ख यह नहीं जानता कि मैं तो स्वयं ही काल का एक ग्रास हूँ ।
तो मैं आपको बता यह रहा था कि सांसारिक पदार्थों और परिजनों को दिन-रात मेरा-मेरा कहने वाला व्यक्ति मोह और आसक्ति के गहरे खड्डे में जा गिरता है और फिर उसे शांति नसीब ही कैसे हो सकती है ? वह सदा लालची
और अशान्त बना रहता है । सच्चा सुख उससे कोसों दूर भागता है । क्योंकि वास्तविक सुख तो संतोष और उससे उत्पन्न शांति में ही निहित है । संत तुलसीदासजी ने भी कहा है
सात द्वीप नव खंड लौं, तीनि लोक जग माँहि ।
तुलसी शांति समान सुख, और दूसरो नाहिं ॥ शांति का कितना महत्त्व बताया गया है ? वस्तुतः शांति के समान संसार में अन्य कोई भी और सुख नहीं है। एक पाश्चात्य विद्वान् ने भी कहा है'Peace is the happy and natural state of man."
-टामसन् शांति मनुष्य की सुखद और स्वाभाविक स्थिति है । अर्थात् - शांति आत्मा का स्वाभाविक और निजी गुण है । इसके अभाव में अन्यत्र कहीं भी
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