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________________ १७० आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग आचार्य ने तपस्या को कल्पवृक्ष की उपमा दी है किन्तु आपको जिज्ञासा हो सकती है कि जब प्रत्येक वृक्ष के जड़, शाखाएँ, फल, पत्तियाँ आदि होते हैं तो तपस्या रूपी कल्पवृक्ष में ये सब हैं या नहीं ? और हैं तो किस प्रकार हैं ? श्लोक में आपकी इस जिज्ञासा का भी समाधान दिया गया है । सर्वप्रथम इसमें तप-रूपी कल्-वृक्ष की जड़ के सम्बन्ध में बताया है । कहा है- तपस्या रूपी इस कल्पवृक्ष की जड़ संतोष है । अब आप पूछेंगे कि संतोष जड़ कैसे हुई ? वह इसलिये कि, जिसके हृदय में संतोष होगा वही त्याग कर सकेगा। संतोष के अभाव ने न तो इन्द्रियों पर संयम रह सकेगा, न मन को वश में रखा जा गा और न ही तपस्या हो सकेगी । जहाँ व्यक्ति एक उपवास भी नहीं कर पाता, वहाँ आठ-आठ दिन अथवा महीने भर भी उपवास कर जाता है । ऐसा क्यों ? इसलिये कि उसे संतोष रहता है । खाद्य पदार्थों के प्रति आसक्ति और गृद्धता का त्याग करके वह सतोष को धारण करता है और इसलिये उसमें तप करने की शक्ति स्वयं ही आ जाती है । इसके विपरीत जिस व्यक्ति को इन्द्रियों के विषयों से कभी तृप्ति नहीं होती, भोग भोगकर भी उससे संतोष नहीं होता वह चाहे गृहस्थ बना रहे या सन्यासी बनकर वन-वन फिरना प्रारम्भ करदे किन्तु उसका जीवन तपोमय नहीं बन पाता । न वह किसी प्रकार का बाह्य तप ही कर पाता है और न ही आभ्यंतर तप का आराधना कर सकता है | कहने का अभिप्राय यही है कि संतोष के अभाव में भले ही व्यक्ति साधु बन जाय, वह किसी प्रकार का तपाराधन करने में समर्थ नहीं बन सकता, और संतोष को धारण करके वह अपने घर और परिवार में रहकर भी तपस्वी बन सकता है । प्रत्येक परिस्थिति में संतुष्ट रहने वाले व्यक्ति का एक बड़ा सुन्दर उदाहरण है 1 सभी यात्री हैं किसी गाँव में एक व्यक्ति रहता था, उसके एक ही लड़का था । लड़का जवान हो गया और उस व्यक्ति ने लड़के का विवाह कर दिया । एक दिन पिता ने किसी उद्देश्य से कुछ व्यक्तियों की मीटिंग करने का निश्चय किया और उन्हें सूचना भेजदी । दैवयोग से उसी दिन तीसरे प्रहर में उसके पुत्र का हार्टफेल हो गया और वह स्वर्गवासी हुआ । 1 पिता ने पूर्ण शांति से मृत को बैठक ही में लिटाकर उस पर एक कपड़ा डाल दिया तथा स्वयं दरवाजे में बैठकर आमंत्रित व्यक्तियों के आने की प्रतीक्षा करने लगा । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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