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________________ १६६ आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग इसीलिये मेरा कहना है कि जितना हो सके तप करो। अगर रोज सम्भव नहीं है तो द्वितीय, पंचमी, अष्टमी, एकादशी और चतुर्दशी इन पाँच तिरियों के दिन ही कुछ न कुछ करो। जितना भी त्याग कर सकते हो, जो भी व्रत धारण कर सकते हो अवश्य करो। इनके अलावा पाँच तिथियों में भी आपसे प्रारम्भ में न बने तो चतुर्दशी पन्द्रह दिन में एक बार आती है। उस दिन ही अधिक नहीं तो रात्रि भोजन का त्याग करो, हरी मत खाओ, ब्रह्मचर्य व्रत रखो और ये भी न बने तो सामायिक ही करो। अगर एक दिन का महत्त्व आप समझ लेंगे और उस दिन कुछ धर्म-क्रिया अथवा तप करने लगेंगे तो आपकी इच्छा अष्टमी को भी इसी प्रकार कुछ न कुछ करने की हो सकेगी। आवश्यकता यही है कि अप प्रारम्भ करें। कोई भी काम प्रारम्भ करने के बाद तो पूरा पड़ता ही है पर पूरा तभी होता है जब कि आरम्भ किया जाता है । तप का यही हाल है । व्यक्ति एक नमोकारसी भी करे उससे नरक के बन्धन टूटते हैं। नमोकारसी का अर्थ है-सूर्य उदय होने के एक घण्टे बाद खाना-पीना । यह कोई कठिन बात नहीं है । सहज हो एक घण्टा बिना खाये पीये निकाला जा सकता है। पर होगा यह भी तभी, जककि व्यक्ति इस बात की ओर ध्यान दे, नमोकारसी के महत्त्व को समझे तथा उसके पालन का निश्चय करे । शास्त्रकारों ने तप का बड़ा भारी महत्त्व माना है और इसे मोक्ष के चार मार्ग दान, शील, तप और भाव में तीसरा स्थान दिया है । तपस्या का अर्थ केवल एक, दो दस या अधिक उपवास करना ही नहीं है अपितु विनय, सेवा, प्रायश्चित आदि-आदि बारह प्रकार के आभ्यन्तर एवं बाह्य तप माने गये हैं। अन्य धर्मों में तप का स्थान ___ यह सही है कि हमारे जैन धर्म में तप की महिमा बड़ी भारी बताई है तथा इपका सूक्ष्म विवेचन स्थान-स्थान पर दिया है । किन्तु अन्य सम्प्रदायों में भी इसका महत्त्व कम नहीं है । वैष्णव सम्प्रदाय आप को अत्यन्त आवश्यक और पवित्र मानता है। वह कहता है- अधिक तप न किया जा सके तो भी एकादशी का तो व्रत प्रत्येक को करना ही चाहिए । मगठी भाषा में सन्त तुकाराम जी करते हैंपंधरावे दिवशी एक एकादशी, कारे न करिशी व्रतसार ॥१॥ पन्द्रह दिन बाद एक एकादशी आती है तब भी हे प्राणी ! तू उसे क्यों नहीं करता ? उस दिन व्रत क्यों नहीं रखता ? Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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