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आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग
सच्चा ज्ञानी कौन ?
प्रश्न उठता है कि जब स्कूलों और कालेजों में प्राप्त किया हुआ ऊँचा से ऊँचा ज्ञान भी ज्ञान नहीं कहलाता तो फिर ज्ञान किसे कहा जा सकता है ? इस विषय में संक्षिप्त में यह कहा जा सकता है कि वह ज्ञान ही सच्चा ज्ञान है जिस ज्ञान से मुक्ति प्राप्त हो :--
'ज्ञानान्मुक्ति प्रजायते।' ज्ञान से ही मुक्ति मिल सकती है अर्थात इस संसार में आत्मा को पुन:-पुनः जन्म-मरण करने से छुटकारा मिल सकता है । ___ अब जिज्ञासा होती है कि ज्ञान ऐसा क्या जादू कर देता है जिसे आत्मा संसार से मुक्त हो जाती है ? इसका समाधान यह है कि सच्चा ज्ञान वस्तु के सत्य स्वरूप को प्रकाश में ला देता है। वह हमें बतलाता है कि अमुक वस्तु त्यागने योग्य है और अमुक वस्तु ग्रहण करने योग्य। उसे विशुद्ध सम्यक् दृष्टि प्राप्त हो जाती है और विवेक उसकी आत्मा में जागृत हो जाता है जिसके कारण वह विषय-भोगों से विरक्त होने लगता है। और किन्हीं कारणों से उनका त्याग नहीं कर पाता तो, अन्त.करण में उनमें लिप्त नहीं होता।
कहा जा सकता है कि अगर सम्यकदष्टि भोगों को हेय समझता है तो उनका सर्वथा त्याग क्यों नहीं करता ? इस प्रश्न का उत्तर यही है कि विवेक के जागृत रहने पर भी और भोगों को हेय समझने पर भी पूर्व कर्मों के उदय से चारित्र का अनुष्ठान नहीं कर पाता किन्तु उसकी आत्मा में छटपटाहट रहती है । जैसे एक कैदी कारागृह में रहने पर वहाँ का कष्ट भोगता है रूखा-सूखा खाता है किन्तु प्रतिक्षण चाहता है कि कब इस कारागार से निकलू।
इसी प्रकार ज्ञानी और सम्यकदृष्टि संसार को कारागृह समझता हुआ रुचिकर न होने पर भी भोगों को भोगता है पर उसकी अभिलाषा यही रहती है कि कब इस संसार-कारागार से निकलकर मुक्त हो जाऊँ । ज्ञानी पुरुष सदा आत्मा के अजर-अमर और अविनाशी स्वरूप का विचार करता है । चिन्तन में लीन होकर वह सोचता है कि न जाने किस-किस दिशा से आये हुए अनन्त परमाणुओं का समूह यह मेरा शरीर है जो प्रतिपल नष्ट होता जा रहा है। वह विचार करता है- शरीर पुद्गलमय और आत्मा चेतनामय है, शरीर रूपी है और आत्मा अरूपी है, शरीर नश्वर है, आत्मा अनश्वर है । मैं आत्मा हूँ शरीर नहीं हूँ। शरीर के नष्ट हो जाने पर भी मेरी आत्मा ज्यों की त्यों अनन्त शक्तिशाली बनी रहेगी।
ज्ञानी पुरुष भली-भाँति जानता है कि यह शरीर जब स्वयं मेरा नहीं है तो किसी का पुत्र, किसी का पिता और किसी का पति कैसे हो सकता है ? यह मेरा होता तो मेरे वश में रहता। मैं नहीं चाहता हूँ तब भी यह बालक से
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