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________________ अपनी बात पाठको ! ___ आपने कहीं पढ़ा होगा कि स्वामी विवेकानन्द जी घूमते-घूमते एक बार किसी ऐसे स्थान पर जा पहुंचे, जहाँ किसी भवन का निर्माण कार्य चल रहा था । अनेकों कारीगर और मजदूर अपने-अपने कार्य में जुटे हुए थे। ___स्वामी जी कुछ देर ठहर कर यह देखते रहे। इतने में एक व्यक्ति ईंटें और पत्थर अपने मस्तक पर ढोकर लाता हुआ दिखाई दिया। विवेकानन्दजी ने कुतुहलवश उससे पूछ लिया- "भाई ! यहाँ क्या बना रहे हो तुम ?" __उस व्यक्ति ने स्वामी जी को देखा तो अपने मस्तक पर रखा हुआ ईंटों का तसला नीचे पृथ्वी पर रख दिया और हाथ जोडकर नमस्कार करते हुए अत्यन्त गद्गद् स्वर से बोला--''महाराज ! यहाँ भगवान का मन्दिर बन रहा है । बन जाने पर सैंकड़ों-हजारों व्यक्ति आकर देव-दर्शन करेंगे तथा भक्तिपूर्वक पूजा-पाठ करके मनवांछित फल पाएँगे। मैं भी बड़ा भाग्यवान हूँ कि मुझे पहले ही भगवान के इस मन्दिर के निर्माण कार्य-में अपना थोड़ा-सा सहयोग देने का सुअवसर मिल गया है।" बन्धुओ, इसी प्रकार श्रमण संघ के आचार्य सम्राट अपने सदुपदेशों के द्वारा जो आध्यात्मिक साहित्य का भंडार भर रहे हैं उसका वर्तमान में भी मुमुक्षु लाभ उठा रहे हैं और चिरकाल तक उठाते रहेंगे। किन्तु इसके सृजन सम्पादन के रूप में मुझे भी पहले ही जो लाभ मिल रहा है उसके लिये मेरे हृदय में आन्तरिक एवं असीम प्रसन्नता है। आपके समक्ष “आनन्द-प्रवचन" का यह तीसरा भाग आया है और मुझे परम सन्तोष है कि इससे पूर्व मेरे द्वारा सम्पादित दोनों भागों को भी आप लोगों ने पसंद किया है। यही कारण है कि इस तीसरे भाग के सम्पादन में मेरा उत्साह बढ़ा है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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