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________________ ६० आनन्द प्रवचन : तृतीय भाग विकार, राग-द्वेष और प्रमाद के वश में होकर असंख्य कर्मों का उपार्जन करता हुआ घोर कष्ट सह रहा है।" ___ "तूने कभी भी अपने ज्ञान-रूपी नेत्रों को खोलकर नहीं देखा कि तेरी आत्मा में ज्ञान, दर्शन एवं चारित्र की कैसी अमूल्य और अपार निधि छिपी हुई प्रौढ़ कवि मुनि श्री अमीऋषि जी महाराज कहते हैं- "कम से कम अब तो तू अज्ञान और मिथ्यात्व के अंधकार से निकलकर ज्ञान के प्रकाश में आ, तथा इस मोह-निद्रा का त्याग करके आत्म-स्वरूप की पहचान कर ! तुझे सोये हुए तो अनादिकाल हो गया, अब जाग और अपने सत्-चित् मानन्ममय रूप का अवलोकन कर !" बंधुओ, वास्तव में ही प्रमादावस्था आत्मोन्नति के लिए घातक विष का काम करती है तथा इस दुर्लभ मानव जीवन को निरर्थक बनाकर छोड़ती है। अतएव इसका त्याग करके प्राणी को महापुरुषों की चेतावनी और हित-शिक्षा पर ध्यान देते हुए सजग होने का प्रयत्न करना चाहिये । उत्तराध्ययन सूत्र की गाथा में आगे बताया गया है कि रोगी एवं आलसी व्यक्ति को भी उसके हित के लिए दी हुई शिक्षा फलदायक नहीं हो पाती। रोग दो प्रकार के होते हैं-शारीरिक और मानसिक । दोनों ही प्रकार के रोगी अपने शरीर की चिन्ता में घुलते रहते हैं। अपनी देह की चिकित्सा के अलावा उन्हें और कोई विचार नहीं आता। रोगों का तो शरीर से सीधा सम्बन्ध है ही अतः शरीर की चिन्ता स्वाभाविक है किन्तु मन के रोग जो विषय-वासानाएँ आदि हैं उनकी तृप्ति भी शरीर के स्वस्थ रहने पर होती है। अत: इन रोगों का रोगी भी सदा अपने शरीर की ही परवाह और चिन्ता करता रहता है । परिणाम यह होता है कि उसे आत्मा की निरोगता और उसकी शुद्धि के चिन्तन के लिये समय ही नहीं मिल पाता।। दूपरे जब तक शरीर स्वस्थ नहीं रहता मन भी अस्वस्थ रहता है और मन के अस्वस्थ रहने पर आत्म-साधना हो भी कैसे सकती है ? इसलिये इन रोगों का रोगी हित शिक्षा में रुचि नहीं ले पाता । अब नम्बर आता है आलसी व्यक्ति का। आलसी व्यक्ति भी जिनागम, जिनवाणी अथवा महापुरुषों के द्वारा दिये गए सदुपदेशों से कोई लाभ नहीं उठता। बरसों जीना है अभी तो ___आलस्य मनुष्य के शरीर में रहने वाला उसका सबसे बड़ा वरी कहा जा सकता है । जिसके जीवन में यह घर कर जाता है, उसे कहीं का नहीं रखता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004006
Book TitleAnand Pravachan Part 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAnand Rushi, Kamla Jain
PublisherRatna Jain Pustakalaya
Publication Year1983
Total Pages366
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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