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भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक
[२१] शिथिलाचारी साधुओं द्वारा स्थूलाचार्य की हत्या। स्थूलाचार्य मरणोपरान्त व्यन्तरदेव-योनि में उत्पन्न होकर हत्यारे
. साधुओं पर उपसर्ग करते हैं।। वहां पापों को नष्ट करनेवाले स्थूलिभद्राचार्य और रामिल्लाचार्य इन दोनों ने तत्काल ही अपने-अपने संघसहित विशाखनन्दि गुरु के चरणों की वन्दना कर (दुष्कालकालीन ) समस्त आपत्तियाँ ( कम्बल, पट, पात्र, दण्ड आदि) हटा दीं। उन्होंने अपने समस्त दोषों का प्रायश्चित किया और अपनी देह को नग्नपने से युक्त कर लिया ( अर्थात् दिगम्बर हो गये )। पुनः स्थूलाचार्य ने अपने शिष्यों से बहुत रीस ( क्रोध ) प्रकट कर कहा-"आओ, हम लोगों को गुरु के पास चलना चाहिए और उनके चरणों में प्रायश्चित लेना चाहिए । अब ( दुष्काल के ) इस दुर्नय का मार्ग ( मिथ्याचर्या ) छोड़ देना चाहिए। परम दिगम्बर रूप को धारण करना चाहिए।
उन स्थूलाचार्य का वह कथन उनके शिष्यों को नहीं रुचा। उन्होंने कहा कि-"अब दिगम्बर कैसे बना जाय ? अब तो यही ( दुष्काल में आचरित-) मार्ग समुचित है । नग्नत्व में कौन अपने को फंसावे । पाणिपात्रत्व में अपनी इन्द्रियों को कोन दण्डित करे ? एक बार भोजन कर कौन दुःखी होवे? अकारण ही तृषातुर होकर कौन मरे ?" इस प्रकार कहकर उनके शिष्यों वे दुराग्रह नहीं छोड़ा और उन मायाचारियों ने उसी समय से वहाँ कुमार्ग का प्रसार करना प्रारम्भ कर दिया। तब स्थूलाचार्य ने उन्हें मोही ( मिथ्यात्वी) कह दिया तथा दुर्वचनों से उन्हें अहर्निश सन्त्रास देने लगे। उन दुर्वचनों एवं सन्त्रास को सहन नहीं कर पाने के कारण उन शिष्यों ने ( एक दिन अवसर पाकर ) रात्रि में निरा अकेले सोते हुए उन गुरु स्थूलाचार्य को मार डाला। वे गुरु मरकर व्यन्तरदेव हुए। उस व्यन्तरदेव ने अवधिज्ञान से अपने भवान्तर को जान लिया । अतः उसने अपने शिष्यवर्ग को सन्त्रस्त किया और उसने उनपर महान् उपसर्ग कर उन्हें दुःखी किया।
पत्ता-तब महामाया से विगलित उन सभी मुनियों ने उस व्यन्तरदेव की पूजा कर आराधना की और कहा- "हे स्वामिन्, हमारी रक्षा करें। आप यहाँ प्रकट हों। अब प्रकट रूप में आप ही हम लोगों के गुरु है-" ॥२१॥
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