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भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक
[ १७ ] पाटलिपुर के द्वादशवर्षीय दुष्काल का हृदय विदारक वर्णन [वह अत्यन्त विकराल दुष्काल कहने योग्य नहीं । ] वह दुष्काल पृथिवी-तल पर छा गया। सभी जन दुखी हो गये। सभी की देहे दुर्बल हो गयीं । पिता-पुत्र, माता-पुत्र एवं पति-पत्नी ने पारस्परिक स्नेह का त्याग कर दिया । एक दूसरे की चिन्ता छोड़कर पत्नी ने पति को और पति ने पत्नी को खण्डित कर दिया ( मार दिया अथवा भगा दिया )।
भूख की असह्य पीड़ा से लोग अभक्ष्य को खाने लगे। न देव का नाम लेते और न धर्म का काम करते, न सुनते तथा शुभकर्म भी नहीं करते थे। न किसी को किसी की लज्जा थी और न संयम ( जीवदया ) ही था । लोग अपने कुलक्रम को छोड़ बैठे । ऐसे दुष्काल में जहां लोगों का बड़ा बुरा हाल हो रहा था वहीं ( उस समय भी ) श्रावकगण अपने व्रतों का पालन कर, मुनिवर-समूह की भक्ति कर तथा उनके चरणों में प्रणाम कर उन्हें यथेच्छ आहार-दान दे रहे थे तथा उनकी सेवा की प्रतीक्षा किया करते थे, और मुनिगणों को आनन्द उत्पन्न कर रहे थे। ___इस प्रकार की दान-विधि से जब कितने ही दिन ( वर्ष ) बीत गये तब एक दिन एक मुनिराज आहार ग्रहण कर श्रावक के भवन से अपने आश्रय की ओर चले । लौटकर आते हुए जिनगृह ( मन्दिर ) को जाते हुए उन ऋषीश्वर को मार्ग में रंकों ( भूखों) ने अशंक ( भयरहित ) होकर पकड़ लिया और उन मुनीश के पेट को तीव्र नखों से फाड़ डाला और उनके पेट में स्थित भोजन को उन भूखों ने जल्दी-जल्दी खा डाला। उस उदर-विदारण से वे मुनिराज उसी स्थल पर पंचत्व को ( मरण को ) प्राप्त हो गये ।
पत्ता-तब श्रावकजनों में गहरा शोक छा गया और विषमता की अनिवार्यता को जानकर उन्होंने तत्काल ही उन पवित्र ऋषिवरों से विनयपूर्वक कहा-"लोक में यह बड़ा ही अभद्र कार्य हुआ है । ( अतः अब ऐसा कीजिए कि)"
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