SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक [४] ज्ञान-विज्ञान में निष्णात होकर भद्रबाहु ने घोर तपश्चरण किया तथा श्रुतकेवलि-पद प्राप्त किया -"एक बार अपने घर जाकर अपने माता-पिता को मुख दिखाकर, हे सविद्य, आमोद-प्रमोद को प्रकाशित कर, फिर तुम घर से शीघ्र ही लौट आना।" ( मुनिराज के ये ) वचन सुनकर वह सुसार (श्रेष्ठ ) भद्रबाहु कुमार तात ( माता-पिता ) के घर गया। पितृजनों के प्रति बहुत विनय प्रदर्शित को और उनसे अपने गुरु को बार-बार प्रशंसा की। अन्य किसी एक दिन उस गुणालय बालक ने राज-सभा में पात्रों का आलम्बन ( आह्वान ) किया और उन सभी ( पात्रों ) को अपनी शक्ति ( ज्ञानाभ्यास ) के वैभव को फैलाकर विद्या-विवाद में जीत लिया तथा भूतल पर अपनी कत्ति को प्रकाशित किया । पुनः चित्त में महाभट (घोर-वीर) वह कुमार माता-पिता की विनय कर तथा उन्हें क्षमा कर एवं क्षमा कराकर अचिर ( जल्दी ही ) फिर सुगुरु ( अपने स्वामी मुनि) के पास आ गया। दृढ़ चित्त वाले उस भद्रबाह नाम वाले कुमार ने विरक्त होकर महाव्रतों को धारण कर लिया और आगम, शास्त्रों के अर्थ में विख्यात वह श्रुत-केवलि के रूप में प्रसिद्ध हुआ। घत्ता-ऋषिवर गोवर्धन ने श्रेष्ठ संन्यास-मरण कर स्वर्गगृह ( घाम ) पाया । श्रीभद्रबाहु मुनि भी जनपदों में विहार करते हुए रहने लगे ॥४॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004003
Book TitleBhadrabahu Chanakya Chandragupt Kathanak evam Raja Kalki Varnan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajaram Jain
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1982
Total Pages164
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy