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भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक
[३] अपने पिता की अनुमति लेकर बालक भद्रबाहु का आचार्य
गोवर्धन के साथ अध्ययनार्थ प्रस्थान
अपने घर में वह द्विज जहां बैठा था, बालक सहित वे मुनिराज वहीं चले गये । ब्राह्मण ने उन पवित्र मुनिराज को प्रणाम कर पूछा-"इस ( तुच्छ ) द्विज के घर आने का क्या प्रयोजन है ?" तब उन यतिराज ने कहा-"हे द्विजवर, यदि तुम कहो तो मैं तुम्हारे नन्दन (पुत्र ) को परम विद्या पढ़ाऊँ ?"
तब वह भूदेव ( सोमशर्मा-ब्राह्मण) मुनियों से बोला-"इस ( भद्रबाहु ) के जन्मदिन ही मैंने सम्यक् गणित लगा लिया था और अपने मन में सोच लिया था कि वह जिनशासन का उद्धार करेगा। उसो निमित्त से यह उत्पन्न ही हुआ है ।" वह ( पुनः) बोला-"लीजिए, यह बालक तुम्हें समर्पित किया। हमारा तो भवितव्य ही ऐसा है ।"
उसी अवसर पर उसकी माता ने आँखों से आंसुओं के पनाले बहाते हुए कहा-“हे स्वामिन्, एक बार मेरे पुत्र का सुख प्रकट करने वाला मुख मुझे दिखा दीजिएगा। पीछे जो भाये सो कीजिएगा । यही एक वचन हमें दीजिए।" तब ऋषि ने वह वचन स्वीकार कर लिया और प्रसन्नतापूर्वक वे मुनिराज बालक को ले गये। उन मुनिराज ने स्नेह प्रकट करते हुए उस बालक को आहार की विधि का ज्ञान श्रावकों के घर कराया। उस बालक को ( उन ) ज्ञानी मुनिराज ने समस्त भव्य शास्त्रों के अर्थ भव्य रीति से पढ़ाये । छह दर्शनों के भेद जानकर उस भव्य वत्स ने भी अपने चित्त में प्रमाण (धारण ) कर लिया।
घत्ता-उस बालक ने गुरु के चरणों की वन्दना कर तथा मन में आनन्दित होकर आपत्ति ( दुःख ) को हरने वाला तप मांगा । तब मुनिराज ने कहा-"हे वत्स, तुझे गुणस्थान, व्रत (चर्या ) एवं चारित्रादि ( आचरण ) पढ़ा दिया है। अतः अब"-॥३॥
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