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भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक सिकन्दर के केवल मनोबल को ही नहीं बढ़ाया अपितु उन्होंने भारतीय सीमा पर विजय तथा मध्यदेश में आगे बढ़ने के लिए उसकी हर प्रकार की सहायता कर उसका मार्ग-दर्शन भी किया।
नन्दों का प्रत्यन्त-शत्रु-राजा ( पुरु या पर्वतक ?) सिकन्दर से पराजित भले ही हो गया हो, किन्तु उसने अपनी सुसंगठित सेना एवं अपनी तेजस्विता से सिकन्दर तथा उसकी सेना को आतंकित अवश्य कर दिया और भारतीय सीमाओं से मँह फेरकर उसे पीछे लौटने को बाध्य कर दिया ।।
सिकन्दर ने आक्रमण कर भारत की हानि भले हो की हो किन्तु उसका एक सबसे बड़ा लाभ यह मिला कि प्रत्यन्त राजाओं ने परस्पर में सुसंगठित रहने का अनुभव किया। चन्द्रगुप्त ने भी उसका लाभ उठाया और उसने भारत में राजनैतिक एकता स्थापित करने को प्रतिज्ञा की। चन्द्रगुप्त मौर्य ( प्रथम ) के व्यक्तित्व की यह सबसे बड़ी विशेषता है कि राजनैतिक विखराव के विद्वेषपूर्ण विषम वातावरण में भी उसने मगध के नन्दराजा के एक सूत्रबद्ध सुदृढ़ साम्राज्य को भी उखाड़ फेंकने की योजना बनाई और उसमें वह सफल भी हो गया।
महाकवि रइधू की प्रस्तुत कृति में जो यह चर्चा आती है कि प्रत्यन्तवासी शत्रु राजा ने जब मगध को घेर लिया, तब नन्द ने अपने एक विश्वस्त मन्त्रो की सलाह से उसे पर्याप्त सम्पत्ति प्रदान कर शान्त किया और वह शत्रु-राजा सन्तुष्ट होकर वापिस लौट गया। प्रतीत होता है कि उक्त प्रत्यन्त शत्रु राजा ( सम्भवतः पुरु या पर्वतक ? ), को जब यह आशंका हुई कि यवनराज सिकन्दर पूरी शक्ति के साथ भारत पर आक्रमण करने वाला है, तब उसने उसके प्रतिरोध के लिए ही धन-संचय की उक्त व्यवस्था की होगी। उसी कारण उसने नन्द नरेश को आक्रमण का आतंक दिखाकर उससे सम्पत्ति वसूल की होगी तथा एक सुदृढ़ सैन्य संगठन कर सिकन्दर से लोहा लिया होगा। वस्तुतः उक्त जैन-सन्दर्भ के आलोक में भी राजा पुरु या पर्वतक सम्बन्धी घटनाओं पर पुनर्विचार किये जाने की आवश्यकता है। कृतज्ञता-ज्ञापन
प्रस्तुत कृति के सम्पादन एवं अनुवाद की मूल प्रेरणा के लिए मैं सर्व प्रथम पूज्य पण्डित फूलचन्द्र जी सिद्धान्तशास्त्री के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ। उनके स्नेहिल आदेशों का ही प्रतिफल है कि यह कृति प्रेस में जा सकी। परमपूज्य मुनिश्री एलाचार्य विद्यानन्द जी महाराज के प्रति नतमस्तक है, जिन्होंने इसके लिए आद्यमिताक्षर के रूप में अपने आशीर्वाद से
१. दे. रइधू कृत भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त-कथानक-कड़वक सं. ७
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