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________________ श्रावकधर्मप्रदीप तुम्हारा दुःख दूर कर देंगे, हमें अनेक प्रकार की सिद्धि है। इत्यादि मिथ्याप्रलाप से जगत के भोले प्राणियों को ठगते हैं। वे सरल संसारी जन संसार के दुःख से आतुर हो अपने दुख को दूर करने के लिए उन मूढ़ों की सेवा करते हैं। उनकी यह क्रिया गुरुसेवा नहीं 'गुरुमूढ़ता है। इस प्रकार गुरुमूढ़ता के स्वरूप को जानकर तत्त्वरसिक जीवों को उसका त्याग करना चाहिए। भावार्थ:- गुरु के स्वरूप को न जानकर यद्वा तद्वा उदर भरने वाले ठगों को गुरु मानकर पूजना गुरुमूढ़ता है। सद्गुरु का कार्य यह है कि वह आगम का पाठी होकर सर्वज्ञाज्ञा प्रमाण हित का उपदेश जनता को देवे। साधु या गुरु एक बहुत उपयोगी व्यक्ति संसार में हैं। ये जनता से भोजनमात्र लेते हैं और इस लोक और परलोक में सुखदायक मार्ग का प्रदर्शन जनता के लिए कहते हैं। जो अपना व पराया उपकार साधन करें वे ही सच्चे साधु हैं। इसी तरह जो महान् गुणों के द्वारा गुरुतर (वजनदार) बन चुके हों वे ही सद्गुरु हैं अन्य नहीं। ऐसे सद्गुरु को छोड़कर अन्य पाखण्डी तपस्वियों की सेवा भक्ति ही गुरुमूढ़ता कहलाती है। चमत्कार गण्डा-तावीज-झाड़ा-फूंकी आदि के द्वारा कुदेवपूजा का प्रचार करने वाले कुगुरु हैं। जैनमार्ग में मात्र भेष नहीं पूजा जाता, भेष के अनुसार गुण हो तो ही वह गुरु है, पूज्य है, अन्यथा नहीं। ३६। (अनुष्टुप्) इत्यात्मदुःखदं निन्द्यं स्वाज्ञानदर्शकं मया। त्रिमूढतास्वरूपं को प्रोक्तं तद्वोधहेतवे।।३७।। इत्यात्मदुःखदमित्यादि:- इत्यनेन प्रकारेण आत्मदुःखदं आत्महितविरुद्धत्वात् दुःखप्रदायकं अतएव निद्यं निन्दनीयं तथा स्वाज्ञानदर्शकं स्वमूढभावप्रदर्शकं त्रिमूढतास्वरूपं मया श्रीकुन्थुसागरस्वामिना तद्बोधहेतवे मूढानाम् सद्बोधहेतोः प्रोक्तम् ।।३७।। उक्त प्रकार से तीन मूढ़ता का स्वरूप प्रतिपादन किया। ये तीनों मूढ़ताएँ यथार्थ में आत्महित के विरूद्ध होने के कारण दुःखदायक हैं, अतएव निन्दनीय तथा मूढ़ताभाव की प्रदर्शक हैं, सज्जनों के प्रतिबोध के लिए इन तीन मूढ़ताओं का स्वरूप श्री कुन्थुसागर स्वामी ने प्रतिपादित किया है।३७। इति मूढतात्रयदोषनिवारणोपदेशः। प्रश्नः-षडनायतनचिह्नं किं विद्यते मे गुरो! वद। छह अनायतन का क्या स्वरूप है? हे गुरु! कृपाकर कहिए Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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