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________________ नैष्ठिकाचार देते हैं (वसन्ततिलका) तुच्छे निसर्गमलिने सुगुरोश्च देहे रत्नत्रयेण सुखदेन पवित्रभूते ग्लानिं करोति न च यो भुवि तस्य शुद्धं सौख्यप्रदं भवति निर्विचिकित्सिताङ्गम् ।।२७। तुच्छ इत्यादिः- शरीरमात्रं खलु प्रकृत्यैव मलिनं भवति। नात्मनि तन्मलिनताया अंशो मनागपि वर्तते, रसरुधिरादिधातुसप्तकानां शरीरत एवोत्पत्तिर्भवति, शरीरस्याप्युत्पत्तिःरसरुधिरादिमलेनैव जायते, इति मलमूर्तिरेव एष देहः। तत्संपर्कादिष्टमपि भोग्यमभोग्यं भवति। तथापि यथा मलिनमपि स्वशरीररूपं दृष्ट्वा पुरुषस्तत्र प्रीतिं करोति, स्वशरीरसेवायां न कदाचित्प्रमाद्यति, तथैव सम्यग्दर्शनगुणसम्पन्नः पुरुषो रत्नत्रयविभूषितस्य सद्गुरोः निसर्गमलिने तुच्छे सुखदेन रत्नत्रयेण पवित्रीभूतं देहे मनागपि ग्लानिं न करोति अपि तु तस्य शरीरसंपर्कात् पवित्रितं चरणरजः शिरसि धारयति तथा च तच्चरणारविन्दसेवया स्वजन्म कृतार्थं मन्यते। एवं पवित्रपरिणामपरिणतस्यैव नरस्य सम्यग्दर्शनस्य सौख्यप्रदं तृतीयं निर्विचिकित्सिताङ्गं भवति।२७। संसारी प्राणी अनादि काल से ही शरीरबद्ध है। जैसे कोई राजा अपराधी प्राणी को मलिन स्थान दुर्गन्धितस्थान रूप जेलखाने में बाँधकर डाल देता है वैसे ही मोहराजा ने रसरुधिरादि अशुद्ध और दुर्गन्धित मलमूत्रोत्पादक, मलमूत्र से उत्पन्न निरंतर भोज्यपदार्थों को भी अभोज्य बनाने वाले इस देहरूपी महादुर्गन्धित जेलखाने में जीव को कैद कर रखा है। शरीर का यह स्वरूप ही है, फिर भी मनुष्य अपने शरीर से प्रीति करता है उसकी यथायोग्य सेवा करता है। उसकी सेवा में न प्रमाद करता और न उससे घृणा करता है। ___कामी पुरुष काम के वशीभूत हो कामिनी के मल-मूत्रमय अंगों का प्रीतिपूर्वक सेवन करता है और उससे ही अपने जीवन को सफल मानता है। यदि वह अपने जीवन में पत्नीपरिग्रह न कर सके तो अपने जीवन को निरर्थक मानता है। मांसभक्षी पुरुष प्राणी के मलमूत्र स्थानभूत अंगों को भक्षण करने में ग्लानि नहीं करता। जो संसारी प्राणी इतने स्थलों में शरीर के मलिन स्वभाव को भुला सकता है वह सम्यक्त्वादिरूप रत्नत्रयों से विभूषित अनन्त गुणों के भंण्डार और अनेक प्रकार के तप संयम के द्वारा पवित्र साधुओं की देह से कैसे ग्लानि करता है यह आश्चर्य की बात है। सम्यग्दृष्टि पुरुष धर्मात्मा पुरुषों से कभी ग्लानि नहीं करता किन्तु उनकी सेवा और परिचर्या में सदा सावधान रहता Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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