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________________ नैष्ठिकाचार ४३ (अनुष्टुप्) मोहस्य सप्तप्रकृतेः क्षयादुपशमानृणाम् । शुद्धचिद्रूपमूर्तेर्वा यथावत्स्वपरात्मनाम् ।।२०।। सुसत्यार्थस्वरूपस्य दर्शकं बोधकं प्रियम् । सम्यक्त्वं जायते शुद्धं जन्ममृत्युजराहरम् ।।२१।। सद्देवगुरुधर्मादौ संसारक्लेशनाशके । तत्पश्चात्स्वात्मनि श्रद्धा जायते विमलेऽचले ।।२२।। मोहस्येत्यादि:- संसारावर्त्तवर्तिनां संसारिजीवानां संसरणकारणेषु कर्मसु मोहनीयमेव प्रबलतमं कर्म वर्तते। दर्शनचारित्रमोहनीयभेदेन द्विधा भिन्नस्य तस्य मिथ्यात्व-सम्यक्त्वसम्यग्मिथ्यात्वानन्तानुबन्धिचतुष्कस्वरूपसप्तप्रकृतेस्सर्वथा क्षयात् तदुपंशमात् क्षयोपशमाद्वा स्वस्य शुद्धचिद्रूपमूर्तेः आत्मनः यथावद् बोधो भवति। अथवा स्वस्वरूपस्य परस्वरूपस्य च यथार्थतया भेदभासनं भवति। एतत्स्वपरावभासनं प्राणिनामाह्लादकरं भ्रमविनाशकं च भवति। तदेव जन्म-जरामरण-स्वरूपसंसारपरिभ्रमणनिवारकं शुद्धं सम्यक्त्वम् अस्ति। सत्यार्थस्वरूपे आप्ते सद्गुरौ आत्महितकारके जिनप्ररूपिते सद्धर्मे शुद्धचैतन्यमूर्तिस्वरूपे स्वात्मनि दृढ़ा श्रद्धा सम्यक्त्वे सत्येव भवति; संसारार्णवोत्तीर्णानां तेषां संसारक्लेशनाशकत्वात् । शुद्धसम्यग्दर्शनेन विना संसारदुःखतरणस्य नास्ति कश्चिदुपायः। अतस्तत्प्राप्त्यर्थमेव सदा यत्नः कार्यः। २०।२१।२२। इस संसार समुद्र की उत्तुङ्ग तरङ्गों में यहाँ वहाँ भटकनेवाले प्राणी को भ्रमण कराने में निमित्त अष्ट कर्मों में से मोहनीय कर्म ही प्रबलतम कारण है। इसके दर्शन मोहनीय की मिथ्यात्व, सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व ऐसी तीन प्रकृतियाँ तथा चारित्रमोह के २५ भेदों में से अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ ऐसी ४ प्रकृतियाँ इस प्रकार मिलकर ये ७ प्रकृतियाँ सम्यग्दर्शन का घात करती हैं यह बात पहले बता चुके हैं। इनके उपशम, क्षयोपशम व क्षय से ही शुद्ध चैतन्यमय आत्मा का बोध उत्पन्न होता है, अथवा यथावत् स्वरूप का या स्वात्मा से भिन्न पर पुद्गलादि पदार्थों का मान होता है। यह स्वपरावबोध ही प्राणियों के लिए आनन्ददाता और प्रिय होता है, इससे ही पर पदार्थों में स्वात्मबुद्धि रूप जो भ्रम था उसका उन्मूलन हो जाता है। इस परिणाम का नाम ही शुद्ध सम्यग्दर्शन है जो जन्म, जरा और मृत्यु से भयावह संसार-परिभ्रमण को रोकने में समर्थ है। वीतराग, सर्वज्ञ व हितोपदेशी सत्यार्थ आप्त; वीतराग परम गुरु और प्राणिमात्र के हित को प्रतिपादक जिन धर्म में तथा आत्मा के शुद्ध चैतन्य चमत्कार स्वरूप में दृढ़ श्रद्धा इसी सम्यक्त्व गुण से ही प्राप्त होती है। संसार चक्र से परीत सद्देव और सद्गुरु Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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