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________________ पाक्षिकाचार इसलिए श्री पूज्य आचार्य महाराज ने पूर्व श्लोकों में यह बता दिया है कि "अहिंसैव परो धर्मः"। ___ सत्य, अचौर्य, स्ववनितासंतोष, अल्पपरिग्रहत्व, क्षमा, विनय, संतोष, सरलवृत्ति, त्याग और दान आदि सम्पूर्ण धर्म एक अहिंसामूलक ही हैं। बिना अहिंसा पालन के इनमें से एक का भी पालन नहीं हो सकता और अहिंसाव्रती इन सभी व्रतों को अहिंसा की बढ़ती हुई भावना से स्वयं प्राप्त कर लेता है। इसके विरुद्ध हिंसाचारी, असत्यभाषण, परधनहरण, परवनिताहरण, भयंकर परिग्रह संग्रह, क्रोध, उद्धता, असंतोष, कूटवृत्ति और अनुदारता आदि दुर्गणों का स्वयं शिकार हो जाता है। अथवा ऐसा कहिए कि बिना हिंसा के इनमें से कोई पाप नहीं हो सकते इसलिए “अहिंसा ही श्रेष्ठ धर्म है" ऐसा उपदेश किया गया है। दूसरे शब्दों में यह भी ध्वनि निकलती है कि 'हिंसा ही सर्व पाप का मूल हैं, और इसलिए यही अधर्म है" उक्त मूल सिद्धान्त पर ही पाक्षिक श्रावक को उपदेश दिया गया है कि स्वपरोपकारकरण, सर्वजीवसुखदुःखसमभाव, धर्मज्ञ पुरुष से प्रीति, धर्मात्मा पुरुषों की सेवा, उनके धर्म साधन में सहायता तथा धर्म के अंगभूत तीर्थ, देवस्थान और सम्यग्गुरू आदि का विनय एवं इनके रक्षण करने में अपना सर्वस्व त्याग आदि पाक्षिक के धर्म हैं। पाक्षिक श्रावक को उक्त धर्म का स्वरूप समझकर उसपर सदा दृढ रहना चाहिए। सदा यही विचार करना चाहिए कि अपने धर्म को पालन करने से ही मैं सुखी रहूँगा। इसके विरूद्ध अधर्म सेवन से कभी सुखी न रह सकूँगा ऐसी भावना से उसे शान्ति सुख और सन्तोष प्राप्त होगा।।१३।। (उपजातिः) भार्या न बोध्या कटुभाषणेन स्वसद्भावार्तापि बहिर्न भाष्या। निजात्मनिन्दैव सदेति कार्या परप्रशंसाखिलसौख्यदात्री ।।१४।। भार्येत्यादिः- पाक्षिकश्रावकस्य गार्हस्थिकजीवननिर्वाहो यथा सुखपूर्वकं स्यात् तथोपदिशत्याचार्यः- स्वभार्या स्वकलत्रं कटुभाषणेन न बोध्या न शिक्षणीया। कटुभाषणं तु परस्परं वैरवर्द्धकं भवति। तथा सति सच्छिक्षाया अपि न कोऽपि प्रभावो भवति, अत एव प्रियं हितं च वक्तव्यम्। स्वसमनि या काऽपि गोपनीया वार्ता दम्पत्योत्रिोः , पितृपुत्रयोर्वा मध्ये भवेत् सा बहिर्न Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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