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________________ २६ श्रावकधर्मप्रदीप शासन में चलें या फिर सबके साथ-साथ मुझे भी स्वतंत्रता पूर्वक रहने का पूर्ण अधिकार हो। जिस समय उसकी दृष्टि घर से बाहर मुहल्ले पर जाती है तो वहाँ भी वह किसी दूसरे मुहल्ले वाले का शासन पसंद नहीं करता। यदि कोई मुहल्ला वाला उस पर अपना कुछ शासन चलावे तो उसके साथ तुरंत झगड़ा हो जाने का प्रसंग आ जाता है। छोटे गांवों में या शहरों के मुहल्लों में झगड़े हो जाने के कारण एक दूसरे को अपने-अपने शासन में रखने तथा स्वयं दूसरे के शासन को पसन्द न करने की मनोवृत्ति ही काम करती है। घर-घर में पिता-पुत्र, भाई-भाई, सास-बहू, जेठानी-देवरानी, ननद-भौजाई आदि में भी यदि कोई झगड़ा होता है तो एक दूसरे के शासन में न रहने तथा घर की सम्पत्ति व भोगोपभोग की सामग्री को स्वतंत्रता के साथ उपयोग कर लेने की इच्छा से ही होता है और वह तबतक चलता है जबतक एक दूसरे के बंधन से उन्मुक्त होकर स्वतंत्र भोगोपभोग के निमित्त उस संपत्ति का बटवारा नहीं कर लेते। कलह के जो कारण घर-घर में हैं वे ही ग्राम और मुहल्ले के झगड़ों के कारण हैं। चूँकि मनुष्य का एक दूसरे के साथ चलनेवाला सम्बन्ध घर और ग्राम या अपने शहर तक ही सीमित नहीं है बल्कि अपने प्रान्त सम्पूर्ण देश तथा विदेशों से भी उसका सम्बन्ध है और यह ऐसा सम्बन्ध है जिसका अलग होना गार्हस्थिक अवस्था में असम्भव है। प्रत्येक मानव जैसे-जैसे वह अपने प्रान्त को, देश को व राष्ट्र को अपनाता जाता है वैसे-वैसे उसका उसमें निवासी जनों के प्रति अपनत्व बढ़ता जाता है। ऐसी अवस्था में मनुष्य का स्वातन्त्र्य व्यक्ति-स्वातन्त्र्य नहीं रह जाता बल्कि वह एक समूचे देश व राष्ट्र का स्वातन्त्र्य हो जाता है। वह चाहता है कि हमारे देश में उसमें निवास करने वाले व्यक्तियों का ही शासन हो। वे अपने सुख-दुःख का विचार स्वतन्त्रता पूर्वक कर सकें। उनके इस कार्य में कोई बाधक न हो। इसका नाम है प्रत्येक देश या राष्ट्र का स्वराज्य। जिस तरह प्रत्येक घर में निवास करनेवालों का पारस्परिक सहानुभूतिपूर्ण सर्व-दुःख-सुख समभाव है और जैसे एक दूसरे के शासन में न रहने की आकांक्षा रहती है वैसे ही दूसरे को अपने शासन में रखने की भी अभिलाषा न हो तो घर में पारस्परिक स्नेह बंधन दूर नहीं होता बल्कि सुदृढ़ बनता है। उसी तरह प्रत्येक ग्राम, देश या राष्ट्रवासियों का भी जब इसी तरह प्रत्येक ग्राम व देशवासी के प्रति परस्पर में एक दूसरे पर शासन करने की मनोवृत्ति न हो परस्पर मैत्री-भाव अर्थात् सुख-दुःख समभागित्व Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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