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पाक्षिकाचार
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(उपजाति.)
शास्त्र का उपदेश है वही शास्त्र सदाकाल स्वाध्याय के योग्य है। ऐसा जिसने निश्चय कर लिया है वही गृहस्थ पाक्षिक है।।७।।
प्रश्न-स्वाचारवृत्तिविषये खलु पाक्षिकस्य कीदृग्गुरो भवति मे वद तस्य भावः। पाक्षिकश्रावकस्य विशेषाचरणप्रवृत्तेः स्वरूपं कीदृगस्तीति प्रश्नः। गुरुवर! अपने आचरण के बारे में पाक्षिक श्रावक के कैसे विचार होते हैं?
(उपजातिः) भोगोपभोगाद्विषमात् प्रमोहात्तथा त्रसस्थावरजीवघातात्। न स्याद्विरक्तिस्तदपि प्रवीरो धर्मादिकार्येऽस्ति सदैव दक्षः।।८।।
भोगोपभोगादित्यादि- चारित्रावरणकर्मोदयविशेषेण पाक्षिकस्य प्रवृत्तिर्न हि विरतिरूपा भवति। सकृद्धोगयोग्यभोजन- गन्धमाल्यादिभोगात् तथा असकृदुपभोगयोग्यशयनाथुपभोगात्तस्य काचिदपि विरक्तता नास्ति। त्रसस्थावरजीवघातबाहुल्येष्वपि व्यापारवाणिज्यादिकर्मसु धनगृहादिपदार्थेषु च अत्यन्तमोहसद्भावादेव तस्य प्रवृत्ति वर्तते, ततो न तत्र तस्य विरक्तिस्सञ्जायत, तथाऽपि पाक्षिकः शुभप्रवृत्त्यात्मके धर्मप्रभावे कार्ये सदैव दक्षः पटुः सोत्साह इति यावत् भवति। अतः स प्रकृष्टो वीरो विध्नशतेष्वपि स्वधर्म-प्रभावनादिपुण्यकार्येभ्यो न कदापि परावर्तते।।८।।
पाक्षिक श्रावक की प्रवृत्ति चारित्रमोहनीय कर्म के उदय की विशेषता के कारण यद्यपि भोग योग्य और उपभोग योग्य पदार्थों के त्यागरूप नहीं होती। त्रसस्थावर जीवों का जिनमें विशेष घात होता है ऐसे व्यापार वाणिज्यादि कार्यों से भी लोभ की विशेषता वश वह विरत नहीं होता, तो भी धर्म के प्रत्येक कार्य के करने में उसका उत्साह सदा बढ़ता रहता है।
भावार्थ- यथायोग्य त्रसस्थावर जीवों की रक्षा करना और भोगोपभोग को कृश करना यही गृहस्थों का चारित्र है। यद्यपि इस त्याग का भी क्रम है। अक्रम से एक ही साथ सब त्यांग नहीं होता। श्रावक की एकादश प्रतिमा के रूप में यही क्रम वर्णित है। तथापि जो श्रावक अभी पाक्षिक अवस्था में है और त्याग के उस क्रम को स्वीकार नहीं कर सका है, उसके न तो भोगोपभोग की वांछा ही घटी और न भोगोपभोग के लिए आवश्यक धन की मूर्छा ही घटी। यही कारण है कि धन की प्राप्ति के लिए उन कार्यों से, जिनमें त्रसस्थावर जीवों का विशेषघात होता है, वह विरक्त नहीं होता, बल्कि भयंकर मोह की परणतिवश ऐसे वाणिज्यादि कार्यों में उसकी प्रवृत्ति पाई जाती है। फिर भी इन कार्यों को वह आत्महितकारक नहीं मानता। इतना ही नहीं, बल्कि त्यागरूप पुण्य कार्यों
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