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________________ ૩૧૮ ' श्रावकधर्मप्रदीप जैनाहिंसातिरेकान्न तदबोधाद्धि किन्तु वै ।। बभूवुश्चक्रवाद्याः तत्पालकाः स्वसिद्धये ।।६।। ग्रन्थोऽयं लिखितो भव्यः स्वर्गमोक्षसुखप्रदः ।। नेच्छा मे ख्यातिलाभस्य न तु नामप्रसिद्धये ।।७।। शुद्धचिद्रूपमूर्तेर्मे किन्नामादिप्रयोजनम् ।। श्रीमतः स्वात्मतुष्टस्य कुन्थुसागरसूरिणः ।।८।कलापकम्।। इस ग्रन्थ के लिखने का यह प्रयोजन है कि वर्तमान युग में कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि जैनधर्म की अहिंसा ने भारतवर्ष की बहुत बड़ी हानि की है। अहिंसा के उपदेश से लोग कायर हो गए। आततायी से युद्ध करने में उन्हें हिंसा का पाप दृष्टिगोचर होता था, इस लिए विदेशी सत्ता के पैर भारत में जम गए। वास्तविक स्थिति तथा ऐतिहासिक स्थिति को न जानकर कुछ व्यक्तियोंके द्वारा किए गये इस मिथ्या आक्षेप का खण्डन करने के हेतु तथा सम्यग् बोध प्राप्त कराने के लिए इस ग्रन्थ की रचना आवश्यक प्रतीत हुई। इस ग्रन्थ में यह बात ग्रन्थकार बता चुके हैं कि जैनों की हिंसा के अतिरेक से नहीं, किन्तु जैनी अहिंसा को न समझ सकने के कारण भारत का पतन हुआ है। ग्रन्थ में बताए गए हिंसा के स्वरूप और उसके भेदों पर विचार करके चलनेवाला गृहस्थ श्रावक उस हिंसा से बचता है। साथ ही अहिंसक धर्मात्माओं के ऊपर आनेवाले विध्न को दूर करने के लिए उनकी रक्षा करता है। इस रक्षा के उद्देश्य को अविस्मरण करके जो संघर्ष उसे करना पड़ता है उस विरोधी हिंसा का कार्य उसकी हिंसा के त्याग की परिधि में नहीं आता। वह मात्र संकल्पी हिंसा का त्यागी है। इस प्रकार यथार्थ ज्ञान के प्रचार हेतु ग्रन्थ की रचना करनी पड़ी है। अनेक चक्रवर्ती, नारायण, प्रतिनारायण अथवा साधारण राजा आदि पुरुष जैनधर्म के प्रतिपालक होते हुए भी कभी नैतिक युद्ध से विमुख नहीं हुए। इनकी कथा जैन पुराणों में अनेक स्थलों पर पाई जाती है। अतः उक्त निराधार आक्षेप को मिटाने का अभिप्राय इस ग्रन्थ के लिखने का है। लौकिक प्रशंसा आदि तथा कीर्ति आदि अभिलाषा से इस ग्रन्थ की रचना नहीं की गई। मैं शुद्ध चिदानन्द स्वरूप अनन्त गुणों का पिण्ड हूँ। शरीरादि पुद्गल द्रव्य हैं। नाम आदि शरीर के हैं, आत्मा के नहीं, तब नामादि का क्या प्रयोजन है? अपनी आत्मा के स्वरूप में ही मानी और अत्यन्त संतोषी मुझ कुन्थुसागर सूरि को नाम और तदाश्रय Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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