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________________ ३०० श्रावकधर्मप्रदीप इसी प्रकार घ्राणेन्द्रिय, कर्णेन्द्रिय और चक्षुरिन्द्रिय के द्वारा सुगंधि, संगीत तथा विविध दृश्यों के ज्ञानमात्र को आत्मा भोगता है। गंध, गान और दृश्य या तो शरीर से संबंध करते हैं या जहाँ के तहाँ उन्हीं पदार्थों में सीमित रहते हैं। आत्मा अमूर्त होने से उसमें इन मूर्तिमान् पदार्थों का संयोग नहीं होता और न हो सकता है। इससे यह निष्कर्ष निकला कि वास्तव में स्पर्श, रस, गंध, वर्ण और शब्दरूप विषय के ज्ञान मात्र का भोक्ता आत्मा है। इन पदार्थों का भोक्ता त्रिकाल में भी नहीं है। यदि ये भोगे जायँ तो पुद्गल द्रव्य उक्त गुणों से रहित हो जाय। यह बात केवल आत्मा के सम्बन्ध में ही नहीं, प्रत्येक द्रव्य के लिए है। यह जैनधर्म का अकाट्य सिद्धान्त है कि प्रत्येक पदार्थ अपने ही स्वरूप में है अपने स्वरूप का परित्याग नहीं करता। यहाँ एक उपप्रश्न हो सकता है कि जीव पुद्गल के सिवाय अन्य द्रव्य अपने रूप का त्याग नहीं करते यह मानना ठीक है, पर इन दो द्रव्यों का तो परस्पर ऐसा सम्बन्ध अनादि से है जिससे आत्मा अपने स्वभाव का परित्याग कर विकृत हो रहा है। तब यह कहना कैसे सुसंगत है कि वह अपने रूप का परित्याग नहीं करता। इसका उत्तर यह है कि आत्मा में विकार परणति भी होती है, परंतु वह पुद्गल कर्म के निमित्त से होती है। तथापि वह परणति पुद्गल निमित्तजन्य होने पर भी पुद्गल रूप नहीं है। अपने गुणों का विकार अपनी आत्मा में होगा और पुद्गलमय विकार पुद्गल में होंगे। अर्थात् ज्ञान, दर्शन, सुख, शक्ति अथवा क्षमा, विनय आदि गुण यदि कर्म के निमित्त से बिगड़ेंगे तो उनका उन्हीं में परिवर्तन होगा। मिथ्यात्व के सम्बन्ध से ज्ञान मिथ्याज्ञान होगा, सुख दुःखरूप परिणत होगा, शक्ति स्वात्महित रूप न होकर अहित रूप में परिणमन करेगी, क्षमा क्रोधरूप बन जायगी, विनय अहंकार का रूप धारण कर लेगा। यह सब गुणों के विकार अवगुण बन जायेंगे, पर पुद्गल के गुणों के रूप में न बनेंगे। गुणों की अवगुण रूप परणति पर निमित्तजन्य होने से विकृति है। यथार्थ में वह अपनी मर्यादा को छोड़कर नहीं है। पुद्गल कभी क्रोध या अहंकार रूप नहीं हो सकता; क्योंकि क्षमादि शक्तियाँ उसमें नहीं है। अतः इन गुणों के विकार भी उनमें नहीं हो सकते। रूप रसादिरूप अथवा कर्म नोकर्मरूप या परमाणु स्कन्धरूप, वर्ग वर्गणारूप परणति पुद्गल की ही होगी, क्योंकि वह उसके स्वभाव की विकृति है। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि जीव और पुद्गल परस्पर निमित्त-नैमित्तिक भाव को प्राप्त होकर भी अपने स्वरूप का परित्याग करके परिणमन नहीं करते किन्तु अपने लक्षण को अपने में रखते हुए ही विकृत होते हैं। अतः यह सिद्ध है कि प्रत्येक द्रव्य अपने स्वरूप का त्याग नहीं करता। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004002
Book TitleShravak Dharm Pradip
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJaganmohanlal Shastri
PublisherGaneshprasad Varni Digambar Jain Sansthan
Publication Year1997
Total Pages352
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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